.
(२)
9-मुसीबत यह है कि हमारी समझ में यह बात बिलकुल गहराई से आ जाती हैं कि कुछ नहीं करना है क्योंकि वह फूल तो बिना किये, निष्प्रयास से ,अप्रयत्न से खिलता है; 'एफर्टलेस' है, उसमें कोई साधना की जरूरत नहीं है।अब हम जो करते थे वह भी छूट गया है, और न करने से वह फूल कहीं खिलता हुआ दिखायी भी नहीं पड़ता। तब उनके चित्त में घनी दुविधा हो जाती है। क्योंकि अभी वे उस जगह नहीं पहुंचे थे जहां फूल अपने -आप खिलता है।
10-शायद वे अभी जड़ें ही हैं या शायद अंकुरित ही हुए थे और अब वे पानी सींचने या कुछ भी करने को राजी नहीं हैं कि पौधे की रक्षा हो सके।लेकिन उनके प्राण बेचैन हैं, भीतर प्राणों में फूल न प्रगट होने की पीड़ा है
लेकिन कुछ करना नहीं है।तो एक तरफ सांख्य की यह दुविधा है कि सांख्य फूल की बात करता है और कठिनाई खड़ी होती है। दूसरी तरफ योग है। योग जड़ों की, भूमि की, पानी की, सूरज की गहन खोज करता है। लेकिन तब एक खतरा वहां भी घटित होता दिखायी पड़ता है कि व्यक्ति क्रियाओं में ही लीन हो जाता है। जिस फूल के खिलने के लिए क्रियाएं शुरू की थीं वह फूल तो भूल ही जाता है। क्रियाएं इतना संलग्न कर लेती हैं कि ऐसा लगता है इन क्रियाओं को करते जाना ही जीवन है।
11-महृषि पतंजलि ने योग के आठ अंग कहे हैं, जिनमें अंतिम तीन अंग धारणा, ध्यान, समाधि अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। बाकी पांच उनकी तरफ ले जाने वाले प्राथमिक चरण हैं। समाधि फूल है तो शेष सात उसका वृक्ष है। लेकिन अक्सर योगी आसन -प्राणायाम ही जीवन भर करते रहते हैं।समाधि
का फूल तो भूल ही जाता है, ये क्रियाएं स्वयं में महत्त्वपूर्ण हो जाती हैं। जब साधन ही साध्य बन जाते हैं तो मार्ग ही मंजिल मालूम होने लगता है। सांख्य की यह भ्रांति होती है कि मंजिल ही इतनी महत्वपूर्ण बन जाती है कि मार्ग की कोई जरूरत ही नहीं। और योग की यह भ्रांति होती है कि मार्ग ही इतना महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि अगर मंजिल भी छोड़नी पड़े तो हम मार्ग को ही पकड़ेंगे, मंजिल को नहीं।क्रियाओं में फंसे व्यक्ति के सामने अगर परमात्मा भी खड़ा हो तो वह कहेगा थोड़ी देर रुको, मैं पहले पूजा -पाठ कर लूं।
12-योग की क्रियाएं की भ्रांति भी हजारों लोगों को भटकाती है; लेकिन सांख्य की भ्रांति तो विरले ही होती है, क्योंकि सांख्य का व्यक्तित्व कभी
कभी ही आता है।इसीलिए योगी की भ्रांति ज्यादा व्यापक है। क्योंकि पृथ्वी के अधिकतम लोग जब भी धर्म में उत्सुक होते हैं, तो तत्काल कर्म में उत्सुक हो जाते हैं। क्योंकि बिना कर्म के व्यक्ति जिंदगी में कुछ भी नहीं पाता, इसीलिए वह सोचता हैं कि धर्म को भी तो कर्म से ही पाएगा। जैसे धन प्रयास से पाया जाता है, वैसे ही धर्म भी पाया जाएगा।परमात्मा को भी पाना है तो कुछ करके ही तो पाना होगा।यह तर्क सामान्यत: समझ में आता है। लेकिन इसका दूसरा अधूरा हिस्सा ही खतरा है कि मन क्रियाओं में इतना रस लेता है कि फिर छोड़ना मुश्किल हो जाता है। मंजिल खो जाती है और मार्ग पकड़ा रह जाता है।
कैवल्य उपनिषद के अनुसार ह्रदय गुहा में प्रवेश कैसे हो सकता है ?-
२३ तथ्य----
1-वास्तव में, सांख्य और योग को दो निष्ठाएं न होकर एक ही निष्ठा के दो अंग है।योग प्राथमिक और सांख्य अंतिम है।योग वृक्ष है तो सांख्य फूल है।इसलिए इन दोनों को इकट्ठा सांख्य योग कहते है। बिना किये कुछ नहीं
होता लेकिन यह भी ध्यान रखना है कि अगर करना ही करना रह गया तो वह घटना भी नहीं घटेगी।उदाहरण के लिए कोई सीढ़ी पर चढ़ता है तो चढ़ता भी है और फिर छोड़ भी देता है। कोई दवा लेता है तो बीमारी ठीक हो जाती है तो दवा छोड़ भी देता है।कोई मार्ग पर चलता है और मंजिल आ जाती है तो मार्ग छोड़ ही देता है।मंजिल की तरफ बढ़ने का मतलब है, मार्ग को छोड़ते चलना। मार्ग का मतलब ही यह होता है कि जिसको हमें प्रतिपल छोड़ते चलना है।
2-मंजिल मार्ग पर चलकर करीब आती है, उसका मतलब ही यह है कि
मार्ग को छोड्कर करीब आती है। मार्ग पर चलना पड़ता है, पकड़ना भी पड़ता है,और मार्ग को छोडना भी पडता है, तो ही मंजिल आती है।
लेकिन हमें दो में से एक बात आसान लगती है कि अगर मार्ग को छोड़ना ही है तो पकड़ना क्यों? यही सांख्य की भूल बन जाती है। और या फिर हमारी समझ में आता है कि जिसको एक बार पकड़ लिया उसको क्या छोड़ना! जब पकड़ ही लिया, तो पकड़ ही लिया। फिर निष्ठापूर्वक उसको पकड़े ही रहेंगे, फिर छोड़ेंगे नहीं। इससे योग की भूल पैदा होती है।
सांख्य और योग...दोनों निष्ठाएं साधक को ध्यान में रहें, तो हृदय की गुफा बहुत शीघ्रता से मिल जाती है।
3-जो भी ध्यान के प्रयोग हो , उनमें दोनों का संयोग होना चाहिए।ध्यान के,
@Sanatan क्रमशः
(२)
9-मुसीबत यह है कि हमारी समझ में यह बात बिलकुल गहराई से आ जाती हैं कि कुछ नहीं करना है क्योंकि वह फूल तो बिना किये, निष्प्रयास से ,अप्रयत्न से खिलता है; 'एफर्टलेस' है, उसमें कोई साधना की जरूरत नहीं है।अब हम जो करते थे वह भी छूट गया है, और न करने से वह फूल कहीं खिलता हुआ दिखायी भी नहीं पड़ता। तब उनके चित्त में घनी दुविधा हो जाती है। क्योंकि अभी वे उस जगह नहीं पहुंचे थे जहां फूल अपने -आप खिलता है।
10-शायद वे अभी जड़ें ही हैं या शायद अंकुरित ही हुए थे और अब वे पानी सींचने या कुछ भी करने को राजी नहीं हैं कि पौधे की रक्षा हो सके।लेकिन उनके प्राण बेचैन हैं, भीतर प्राणों में फूल न प्रगट होने की पीड़ा है
लेकिन कुछ करना नहीं है।तो एक तरफ सांख्य की यह दुविधा है कि सांख्य फूल की बात करता है और कठिनाई खड़ी होती है। दूसरी तरफ योग है। योग जड़ों की, भूमि की, पानी की, सूरज की गहन खोज करता है। लेकिन तब एक खतरा वहां भी घटित होता दिखायी पड़ता है कि व्यक्ति क्रियाओं में ही लीन हो जाता है। जिस फूल के खिलने के लिए क्रियाएं शुरू की थीं वह फूल तो भूल ही जाता है। क्रियाएं इतना संलग्न कर लेती हैं कि ऐसा लगता है इन क्रियाओं को करते जाना ही जीवन है।
11-महृषि पतंजलि ने योग के आठ अंग कहे हैं, जिनमें अंतिम तीन अंग धारणा, ध्यान, समाधि अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। बाकी पांच उनकी तरफ ले जाने वाले प्राथमिक चरण हैं। समाधि फूल है तो शेष सात उसका वृक्ष है। लेकिन अक्सर योगी आसन -प्राणायाम ही जीवन भर करते रहते हैं।समाधि
का फूल तो भूल ही जाता है, ये क्रियाएं स्वयं में महत्त्वपूर्ण हो जाती हैं। जब साधन ही साध्य बन जाते हैं तो मार्ग ही मंजिल मालूम होने लगता है। सांख्य की यह भ्रांति होती है कि मंजिल ही इतनी महत्वपूर्ण बन जाती है कि मार्ग की कोई जरूरत ही नहीं। और योग की यह भ्रांति होती है कि मार्ग ही इतना महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि अगर मंजिल भी छोड़नी पड़े तो हम मार्ग को ही पकड़ेंगे, मंजिल को नहीं।क्रियाओं में फंसे व्यक्ति के सामने अगर परमात्मा भी खड़ा हो तो वह कहेगा थोड़ी देर रुको, मैं पहले पूजा -पाठ कर लूं।
12-योग की क्रियाएं की भ्रांति भी हजारों लोगों को भटकाती है; लेकिन सांख्य की भ्रांति तो विरले ही होती है, क्योंकि सांख्य का व्यक्तित्व कभी
कभी ही आता है।इसीलिए योगी की भ्रांति ज्यादा व्यापक है। क्योंकि पृथ्वी के अधिकतम लोग जब भी धर्म में उत्सुक होते हैं, तो तत्काल कर्म में उत्सुक हो जाते हैं। क्योंकि बिना कर्म के व्यक्ति जिंदगी में कुछ भी नहीं पाता, इसीलिए वह सोचता हैं कि धर्म को भी तो कर्म से ही पाएगा। जैसे धन प्रयास से पाया जाता है, वैसे ही धर्म भी पाया जाएगा।परमात्मा को भी पाना है तो कुछ करके ही तो पाना होगा।यह तर्क सामान्यत: समझ में आता है। लेकिन इसका दूसरा अधूरा हिस्सा ही खतरा है कि मन क्रियाओं में इतना रस लेता है कि फिर छोड़ना मुश्किल हो जाता है। मंजिल खो जाती है और मार्ग पकड़ा रह जाता है।
कैवल्य उपनिषद के अनुसार ह्रदय गुहा में प्रवेश कैसे हो सकता है ?-
२३ तथ्य----
1-वास्तव में, सांख्य और योग को दो निष्ठाएं न होकर एक ही निष्ठा के दो अंग है।योग प्राथमिक और सांख्य अंतिम है।योग वृक्ष है तो सांख्य फूल है।इसलिए इन दोनों को इकट्ठा सांख्य योग कहते है। बिना किये कुछ नहीं
होता लेकिन यह भी ध्यान रखना है कि अगर करना ही करना रह गया तो वह घटना भी नहीं घटेगी।उदाहरण के लिए कोई सीढ़ी पर चढ़ता है तो चढ़ता भी है और फिर छोड़ भी देता है। कोई दवा लेता है तो बीमारी ठीक हो जाती है तो दवा छोड़ भी देता है।कोई मार्ग पर चलता है और मंजिल आ जाती है तो मार्ग छोड़ ही देता है।मंजिल की तरफ बढ़ने का मतलब है, मार्ग को छोड़ते चलना। मार्ग का मतलब ही यह होता है कि जिसको हमें प्रतिपल छोड़ते चलना है।
2-मंजिल मार्ग पर चलकर करीब आती है, उसका मतलब ही यह है कि
मार्ग को छोड्कर करीब आती है। मार्ग पर चलना पड़ता है, पकड़ना भी पड़ता है,और मार्ग को छोडना भी पडता है, तो ही मंजिल आती है।
लेकिन हमें दो में से एक बात आसान लगती है कि अगर मार्ग को छोड़ना ही है तो पकड़ना क्यों? यही सांख्य की भूल बन जाती है। और या फिर हमारी समझ में आता है कि जिसको एक बार पकड़ लिया उसको क्या छोड़ना! जब पकड़ ही लिया, तो पकड़ ही लिया। फिर निष्ठापूर्वक उसको पकड़े ही रहेंगे, फिर छोड़ेंगे नहीं। इससे योग की भूल पैदा होती है।
सांख्य और योग...दोनों निष्ठाएं साधक को ध्यान में रहें, तो हृदय की गुफा बहुत शीघ्रता से मिल जाती है।
3-जो भी ध्यान के प्रयोग हो , उनमें दोनों का संयोग होना चाहिए।ध्यान के,
@Sanatan क्रमशः