सनातन धर्म • Sanatan Dharma


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मानवमात्रके लिए समाज सुधार एवं चरित्र निर्माण सम्बन्धी साहित्य प्रकाशनमें सन् १९२३ से सेवारत्।
Serving Humanity for Truth and Peace Since 1923.

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@Sanatan


साधनात्मक उत्थान
जीवन में साधनात्मक उत्थान के लिए आवश्यक है कि सात्विक गुणों को प्रखर किया जाए।इस शरीर में विकार काम, क्रोध, मद, लोभ, मत्सर और अहंकार है, और यही ऊर्जा के भी रूप हैं।इनके नकारात्मक स्वरूप से ग्रस्त व्यक्ति ईर्ष्यालु एवं उसमें सहनशीलता का अभाव होता है।उसका मन हमेशा अशान्त रहता है।वस्तुतः मनुष्य की सकल पीड़़ाओं का निवारण और उसके मन का शुद्धिकरण उस समय आरंम्भ होता है ,जब उसके अंदर सत्व जाग्रत होता है।सत्वगुण के प्रखर होने पर ही तमस समाप्त होने लगता है।जब सत्वगुण बढ़ता है तो बुद्धि धर्म में स्थित होती है।सतोगुणी बुद्धि धर्म एवं यज्ञ में अनायास ही प्रवृत्त होती है। इस देह में कौन सा गुण अधिक प्रबल है इसको कैसे जाने ? शास्त्र के अनुसार सत्व गुण सूक्ष्म प्रकाशक, स्वच्छ, निर्मल है।सत्वगुण आनन्दानुभूति को तीव्र करता है।इस गुण की प्रधानता होने पर सम्पूर्ण शरीर एवं मन हल्का रहता है ।अन्तःकरण और इन्द्रियों में चेतना एवं विवेक शक्ति उत्पन्न होती है।रजोगुण के बढ़ने से ईर्ष्या,द्वेष, स्पर्धा, द्रोह,लोभ प्रवृत्ति एवं विषय भोगों की लालसा बढ़ जाती है। जम्हाई अधिक आती है ।जिस व्यक्ति में तमोगुण प्रधान रहता है, उसका मन अशान्त रहता है। कर्तव्य -कर्मो में अप्रवृत्ति और प्रमाद अर्थात व्यर्थ चेष्टा ,भय, विवाद, कुटिलता, नास्तिकता प्रकट होता है।उसे नींद नहीं आती है एवं उसका चित्त भारी रहता है

@Sanatan 🚩


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एक अत्यंत श्रेष्ठतम जानकारी

गाय का पुराना घी

निमोनिया जैसी बीमारी से बचने के लिए सर्वोत्तम आयुर्वेद  में गाय के घी को अमृत समान बताया गया है। कई घरों में बहुत से लोग इससे परहेज़ करते हैं और घी को हाथ तक नहीं लगाते। पर अगर गाय के घी को नियमित रूप से सेवन किया जाए तो कई रोगों से मुक्त रह सकते हैं ।
अच्छे उत्तम गो-घृत को लेकर किसी चीनी मिटटी के पात्र या कांच के अमृतवान में भरकर ढक्कन बंद करके ५ बर्ष पर्यंत रखे । तत्पश्चात उपयोग में ले ।
गुण और उपयोग-
यह पुराना घी अनेको विकारो में ताज़े घी की अपेक्षा अधिक श्रेष्ठ, लाभप्रद और उत्कृष्ट मेधावर्धक हैं । इसकी मालिश करने से छाती में जमा हुआ कफ ढीला होकर सरलता से निकल जाता हैं । विशेषतया पार्श्वशूल और न्यूमोनिया ( pneumonia ) में उत्कृष्ट लाभ होता हैं । उन्माद, अपस्मार और अनिद्रा को भी नष्ट करने में विशेष उपयोगी हैं ।
10 वर्ष पुराने गौ घृत को (जिरण) कहा गया है
मात्र 10 वर्ष पुराने गौ घृत से कैंसर लकवा  मेमोरी लॉस मानसिक रोग जैसी बीमारियां अच्छे वेदाचार्य के संपर्क और मार्गदर्शन से सहज ही सरलता से ठीक हो सकती है। और मनुष्य पूर्णता स्वस्थ हो सकता है।
100 वर्ष पुराने गौ घृत को (कुंभ )कहां गया है।
100 वर्ष पुराने गो घृत के आयुर्वेद पद्धति से सेवन करने से मनुष्य की आयु 1000से 2000 वर्ष लंबी हो सकती है नपुसंक पुरुष को भी पुरुषार्थ मिल सकता है।
1000 वर्ष पुराने  गौ घृत को (महा घृत) कहा गया है।
1000 वर्ष पुराने गो घृत से  शरीर के किसी भी अंग को पुनः नवीन बनाया जा सकता है शरीर के किसी भी कटे हुए अंग को पुनः पाया जा सकता है मृत्यु के समीप गए हुए मनुष्य को भी पुणः जीवन दिया जा सकता है। एक प्रकार से मृत संजीवनी कार्य कर सकता है।
दुर्लभ से दुर्लभ फल प्राप्ति के लिए यज्ञ अनुष्ठान से मनोवांछित फल प्राप्त किया जा सकता है।
देव यक्ष गंधर्व वसु दिगपाल नवग्रह यज्ञ करता के वशीभूत हो सकते हैं।
@Sanatan


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हिन्दू धर्म की 10 महत्वपूर्ण बातें ........

१...10 ध्वनियां : 1.घंटी, 2.शंख, 3.बांसुरी, 4.वीणा, 5. मंजीरा, 6.करतल, 7.बीन (पुंगी), 8.ढोल, 9.नगाड़ा और 10.मृदंग

२,,,,10 कर्तव्य:- 1. संध्यावंदन, 2. व्रत, 3. तीर्थ, 4. उत्सव, 5. दान, 6. सेवा 7. संस्कार, 8. यज्ञ, 9. वेदपाठ, 10. धर्म प्रचार। आओ जानते हैं इन सभी को विस्तार से।

३,,,,10 दिशाएं : दिशाएं 10 होती हैं जिनके नाम और क्रम इस प्रकार हैं- उर्ध्व, ईशान, पूर्व, आग्नेय, दक्षिण, नैऋत्य, पश्चिम, वायव्य, उत्तर और अधो। एक मध्य दिशा भी होती है। इस तरह कुल मिलाकर 11 दिशाएं हुईं।

४....10 दिग्पाल : 10 दिशाओं के 10 दिग्पाल अर्थात द्वारपाल होते हैं या देवता होते हैं। उर्ध्व के ब्रह्मा, ईशान के शिव व ईश, पूर्व के इंद्र, आग्नेय के अग्नि या वह्रि, दक्षिण के यम, नैऋत्य के नऋति, पश्चिम के वरुण, वायव्य के वायु और मारुत, उत्तर के कुबेर और अधो के अनंत।

५.….10 देवीय आत्मा : 1.कामधेनु गाय, 2.गरुढ़, 3.संपाति-जटायु, 4.उच्चै:श्रवा अश्व, 5.ऐरावत हाथी, 6.शेषनाग-वासुकि, 7.रीझ मानव, 8.वानर मानव, 9.येति, 10.मकर।

६.....10 देवीय वस्तुएं : 1.कल्पवृक्ष, 2.अक्षयपात्र, 3.कर्ण के कवच कुंडल, 4.दिव्य धनुष और तरकश, 5.पारस मणि, 6.अश्वत्थामा की मणि, 7.स्यंमतक मणि, 8.पांचजन्य शंख, 9.कौस्तुभ मणि और संजीवनी बूटी।

७....10 पवित्र पेय : 1.चरणामृत, 2.पंचामृत, 3.पंचगव्य, 4.सोमरस, 5.अमृत, 6.तुलसी रस, 7.खीर, 9.आंवला रस

८....10 महाविद्या : 1.काली, 2.तारा, 3.त्रिपुरसुंदरी, 4. भुवनेश्‍वरी, 5.छिन्नमस्ता, 6.त्रिपुरभैरवी, 7.धूमावती, 8.बगलामुखी, 9.मातंगी और 10.कमला।

९....10 उत्सव : नवसंवत्सर, मकर संक्रांति, वसंत पंचमी, पोंगल, होली, दीपावली, रामनवमी, कृष्ण जन्माष्‍टमी, महाशिवरात्री और नवरात्रि।

१०...10 बाल पुस्तकें : 1.पंचतंत्र, 2.हितोपदेश, 3.जातक कथाएं, 4.उपनिषद कथाएं, 5.वेताल पच्चिसी, 6.कथासरित्सागर, 7.सिंहासन बत्तीसी, 8.तेनालीराम, 9.शुकसप्तति, 10.बाल कहानी संग्रह।

११....10 पूजा : गंगा दशहरा, आंवला नवमी पूजा, वट सावित्री, तुलसी विवाह पूजा, शीतलाष्टमी, गोवर्धन पूजा, हरतालिका तिज, दुर्गा पूजा, भैरव पूजा और छठ पूजा।

१२...10 धार्मिक स्थल : 12 ज्योतिर्लिंग, 51 शक्तिपीठ, 4 धाम, 7 पुरी, 7 नगरी, 4 मठ, आश्रम, 10 समाधि स्थल, 5 सरोवर, 10 पर्वत और 10 गुफाएं।

१३..10 पूजा के फूल : आंकड़ा, गेंदा, पारिजात, चंपा, कमल, गुलाब, चमेली, गुड़हल, कनेर, और रजनीगंधा।

१४...10 धार्मिक सुगंध : गुग्गुल, चंदन, गुलाब, केसर, कर्पूर, अष्टगंथ, गुढ़-घी, समिधा, मेहंदी, चमेली।

१५...10 यम-नियम :1.अहिंसा, 2.सत्य, 3.अस्तेय 4.ब्रह्मचर्य और 5.अपरिग्रह। 6.शौच 7.संतोष, 8.तप, 9.स्वाध्याय और 10.ईश्वर-प्रणिधान।

१६...10 सिद्धांत :
1.एको ब्रह्म द्वितीयो नास्ति (एक ही ईश्‍वर है दूसरा नहीं), 2.आत्मा अमर है,
3.पुनर्जन्म होता है,
4.मोक्ष ही जीवन का लक्ष्य है, 5.कर्म का प्रभाव होता है, जिसमें से ‍कुछ प्रारब्ध रूप में होते हैं इसीलिए कर्म ही भाग्य है, 6.संस्कारबद्ध जीवन ही जीवन है,
7.ब्रह्मांड अनित्य और परिवर्तनशील है,
8.संध्यावंदन-ध्यान ही सत्य है, 9.वेदपाठ और यज्ञकर्म ही धर्म है,
10.दान ही पुण्य है।
@Sanatan


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(२)
9-मुसीबत यह है कि हमारी समझ में यह बात बिलकुल गहराई से आ जाती हैं कि कुछ नहीं करना है क्योंकि वह फूल तो बिना किये, निष्‍प्रयास से ,अप्रयत्‍न से खिलता है; 'एफर्टलेस' है, उसमें कोई साधना की जरूरत नहीं है।अब हम जो करते थे वह भी छूट गया है, और न करने से वह फूल कहीं खिलता हुआ दिखायी भी नहीं पड़ता। तब उनके चित्त में घनी दुविधा हो जाती है। क्योंकि अभी वे उस जगह नहीं पहुंचे थे जहां फूल अपने -आप खिलता है।
10-शायद वे अभी जड़ें ही हैं या शायद अंकुरित ही हुए थे और अब वे पानी सींचने या कुछ भी करने को राजी नहीं हैं कि पौधे की रक्षा हो सके।लेकिन उनके प्राण बेचैन हैं, भीतर प्राणों में फूल न प्रगट होने की पीड़ा है
लेकिन कुछ करना नहीं है।तो एक तरफ सांख्य की यह दुविधा है कि सांख्य फूल की बात करता है और कठिनाई खड़ी होती है। दूसरी तरफ योग है। योग जड़ों की, भूमि की, पानी की, सूरज की गहन खोज करता है। लेकिन तब एक खतरा वहां भी घटित होता दिखायी पड़ता है कि व्यक्ति क्रियाओं में ही लीन हो जाता है। जिस फूल के खिलने के लिए क्रियाएं शुरू की थीं वह फूल तो भूल ही जाता है। क्रियाएं इतना संलग्‍न कर लेती हैं कि ऐसा लगता है इन क्रियाओं को करते जाना ही जीवन है।
11-महृषि पतंजलि ने योग के आठ अंग कहे हैं, जिनमें अंतिम तीन अंग धारणा, ध्यान, समाधि अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। बाकी पांच उनकी तरफ ले जाने वाले प्राथमिक चरण हैं। समाधि फूल है तो शेष सात उसका वृक्ष है। लेकिन अक्सर योगी आसन -प्राणायाम ही जीवन भर करते रहते हैं।समाधि
का फूल तो भूल ही जाता है, ये क्रियाएं स्वयं में महत्त्वपूर्ण हो जाती हैं। जब साधन ही साध्य बन जाते हैं तो मार्ग ही मंजिल मालूम होने लगता है। सांख्य की यह भ्रांति होती है कि मंजिल ही इतनी महत्वपूर्ण बन जाती है कि मार्ग की कोई जरूरत ही नहीं। और योग की यह भ्रांति होती है कि मार्ग ही इतना महत्त्वपूर्ण हो जाता है कि अगर मंजिल भी छोड़नी पड़े तो हम मार्ग को ही पकड़ेंगे, मंजिल को नहीं।क्रियाओं में फंसे व्यक्ति के सामने अगर परमात्‍मा भी खड़ा हो तो वह कहेगा थोड़ी देर रुको, मैं पहले पूजा -पाठ कर लूं।
12-योग की क्रियाएं की भ्रांति भी हजारों लोगों को भटकाती है; लेकिन सांख्य की भ्रांति तो विरले ही होती है, क्योंकि सांख्य का व्यक्तित्व कभी
कभी ही आता है।इसीलिए योगी की भ्रांति ज्यादा व्यापक है। क्योंकि पृथ्वी के अधिकतम लोग जब भी धर्म में उत्सुक होते हैं, तो तत्काल कर्म में उत्सुक हो जाते हैं। क्योंकि बिना कर्म के व्यक्ति जिंदगी में कुछ भी नहीं पाता, इसीलिए वह सोचता हैं कि धर्म को भी तो कर्म से ही पाएगा। जैसे धन प्रयास से पाया जाता है, वैसे ही धर्म भी पाया जाएगा।परमात्‍मा को भी पाना है तो कुछ करके ही तो पाना होगा।यह तर्क सामान्यत: समझ में आता है। लेकिन इसका दूसरा अधूरा हिस्सा ही खतरा है कि मन क्रियाओं में इतना रस लेता है कि फिर छोड़ना मुश्किल हो जाता है। मंजिल खो जाती है और मार्ग पकड़ा रह जाता है।

कैवल्‍य उपनिषद के अनुसार ह्रदय गुहा में प्रवेश कैसे हो सकता है ?-

२३ तथ्य----
1-वास्तव में, सांख्य और योग को दो निष्ठाएं न होकर एक ही निष्ठा के दो अंग है।योग प्राथमिक और सांख्य अंतिम है।योग वृक्ष है तो सांख्य फूल है।इसलिए इन दोनों को इकट्ठा सांख्य योग कहते है। बिना किये कुछ नहीं
होता लेकिन यह भी ध्यान रखना है कि अगर करना ही करना रह गया तो वह घटना भी नहीं घटेगी।उदाहरण के लिए कोई सीढ़ी पर चढ़ता है तो चढ़ता भी है और फिर छोड़ भी देता है। कोई दवा लेता है तो बीमारी ठीक हो जाती है तो दवा छोड़ भी देता है।कोई मार्ग पर चलता है और मंजिल आ जाती है तो मार्ग छोड़ ही देता है।मंजिल की तरफ बढ़ने का मतलब है, मार्ग को छोड़ते चलना। मार्ग का मतलब ही यह होता है कि जिसको हमें प्रतिपल छोड़ते चलना है।
2-मंजिल मार्ग पर चलकर करीब आती है, उसका मतलब ही यह है कि
मार्ग को छोड्कर करीब आती है। मार्ग पर चलना पड़ता है, पकड़ना भी पड़ता है,और मार्ग को छोडना भी पडता है, तो ही मंजिल आती है।
लेकिन हमें दो में से एक बात आसान लगती है कि अगर मार्ग को छोड़ना ही है तो पकड़ना क्यों? यही सांख्य की भूल बन जाती है। और या फिर हमारी समझ में आता है कि जिसको एक बार पकड़ लिया उसको क्या छोड़ना! जब पकड़ ही लिया, तो पकड़ ही लिया। फिर निष्ठापूर्वक उसको पकड़े ही रहेंगे, फिर छोड़ेंगे नहीं। इससे योग की भूल पैदा होती है।
सांख्य और योग...दोनों निष्ठाएं साधक को ध्यान में रहें, तो हृदय की गुफा बहुत शीघ्रता से मिल जाती है।
3-जो भी ध्यान के प्रयोग हो , उनमें दोनों का संयोग होना चाहिए।ध्यान के,
@Sanatan क्रमशः


कैवल्‍य उपनिषद के अनुसार ह्रदय गुहा में प्रवेश कैसे हो सकता है?
कैवल्‍य उपनिषद के अनुसार सांख्य और योग;-
12 तथ्य--
(१)
1-कैवल्य उपनिषद इस सूत्र पर समाप्त होता है ...''मेरे लिए भूमि, जल, अग्रि, वायु आकाश कुछ नहीं है।वही मनुष्य मेरे शुद्ध परमात्म स्वरूप का साक्षात्कार करता है, जो मायिक प्रपंचों से परे, सब के साक्षी,सत -असत

अर्थात अस्तित्व-अनस्तित्व से परे, निराकार, हृदय की गुहा में स्थित

इस सूत्र में सर्वाधिक महत्वपूर्ण बात समझने की है कि उस परम सत्ता को जानने वाला हृदय की गुहा में प्रवेश पाता है, या फिर हृदय की गुहा में प्रवेश करने वाला उस परम सत्ता को जान लेता है। ये दो ही उपाय है।इसलिए दो ही निष्ठाएं हैं मनुष्य की साधना की।
2-जीवन के सत्य को जानने की दो निष्ठाएं मानी जाती हैं।एक का नाम है सांख्य और दूसरे का नाम है योग।सांख्य का अर्थ है, जो उस परम सत्ता को जान लेता है वह हृदय की गुहा में प्रविष्ट हो जाता है। योग का अर्थ है, जो हृदय की गुहा में प्रविष्ट हो जाता है ;वह उस परम सत्ता को जान लेता है।
सांख्य शुद्ध ज्ञान है और योग साधना है।सांख्य कहता है कि करना कुछ भी नहीं है, सिर्फ जानना है।योग कहता है कि करना बहुत कुछ है और तभी जानना फलित होगा।यह दोनों ही सही हैं और यह दोनों ही गलत भी हो सकते हैं।ये निर्भर करेगा एक साधक पर।
3-अगर कोई साधक ज्ञान की अग्रि इतनी जलाने में समर्थ हो कि उस अग्रि में उसका अहंकार जल जाए, सिर्फ ज्ञान की अग्रि ही रह जाए अथार्त ज्ञान ही रह जाए, ज्ञाता न रहे; भीतर कोई अहंकार का केंद्र न रह जाए, सिर्फ जानना मात्र रह जाए, बोध/अवेयरनेस' रह जाए तो कुछ भी करने की
जरूरत नहीं है।जानने की इस अग्रि से ही सब कुछ हो जाएगा।जानने की ही चेष्टा करना ; उसी स्थिति को बढ़ाने के लिए प्रतिदिन अग्रसर होना पर्याप्त है।अथार्त होश बढ़ जाए और जागृति आ जाए।
4-लेकिन करोङो में किसी एक व्यक्ति के साथ यह घटना घटती है।और जिस व्यक्ति के साथ भी यह घटना घटती है, वह भी न मालूम कितने जन्मों की चेष्टाओं का फल होता है।लेकिन जब भी सांख्य की घटना किसी को घटती है तो वैसे व्यक्ति को प्रतीत होता है कि सिर्फ जानना काफी है। जानने से ही सब कुछ हो गया।वह सांख्य योग के विपरीत बातें करता
है।क्योंकि जिसको भी सांख्य की अवस्था उत्‍पन्‍न होगी, उसे लगेगा कि कुछ और तो करना ही नहीं पड़ता है ..सिर्फ होश से भर जाना काफी है।लेकिन उसके अनंत जन्मों में करने से ही अनंत धाराएं बहती हैं।
5-लेकिन जो बेहोश पड़ा है, उसे होश से भर जाना ही तो सबसे बड़ी उलझन की बात है। जिसकी नींद खुल गयी, वह कह सकता है कि मुझे कुछ और नहीं करना पड़ा, नींद खुल गयी और मैंने प्रकाश का दर्शन कर लिया। लेकिन जो सोया पड़ा है, और सोया ही नहीं जहर खाकर बेहोश पड़ा है, उससे हम चिल्ला चिल्लाकर कहते रहें कि जागो, सिर्फ जागना काफी है, नींद का टूट जाना काफी है, कुछ करने की जरूरत नहीं और सत्य उपलब्ध हो जाएगा...तो ये बातें भी उसे सुनायी नहीं पड़ती।जो अभी मूर्छित है, पहले तो उसकी मूर्छा तोड़नी पड़ेगी, ताकि वह सुन सके।आंख खोलने की बात भी तो उसके भीतर पहुंचनी चाहिए।
6-इसलिए सांख्य की मान्यता बिलकुल सही होकर भी काम नहीं कर पाती है।सांख्य का कोई व्यक्तित्व सांख्य की बातें कहे चला जाता है कि कुछ भी करना जरूरी नहीं है ;सिर्फ होश से भर जाना काफी है।लेकिन लोगों को सुनायी ही नहीं पड़ता है।क्योंकि वे सोए हुए नहीं हैं, वे मूर्च्‍छित हैं।और उनकी समझ में भी आ जाता है, तब वह समझ मात्र बौद्धिक होती है,अथार्त ऊपरी होती है।शब्द , सिद्धांत पकड लेते हैं और फिर उन्हीं सिद्धांतों को दोहराने भी लगते हैं। लेकिन उनके जीवन में कहीं कोई रूपांतरण नहीं होता।
7-सांख्य एक फूल की तरह है और जब फूल खिलता है, तब हमें जड़ों का खयाल भी नहीं आता।क्योंकि जड़ें तो अंधेरे गर्त में, पृथ्वी में छिपी पड़ी होती हैं। लेकिन वर्षों तक जड़ें निर्मित होती हैं, फिर पौधा निर्मित होता है और तब कहीं फूल खिलता है।फूल का खिल जाना एक लंबी शृंखला का हिस्सा है।जब फूल खिलता है तो सारी शृंखला भूल जाती है। जब फूल खिलता है तब सारी शृंखला छिप जाती है।और जब अंतिम फल आता है तो उस फल के आच्छादन में सब कुछ विस्मृत हो जाता है, जो लंबी यात्रा है।
8-लेकिन फूल न खिला हो, तो किसी से यह कहना कि फूल खिलना काफी है, खतरनाक भी हो सकता है। क्योंकि वह व्यक्ति जड़ों को संभालने के लिए और पौधे को बड़ा करने के लिए जो कर सकता था वह भी नहीं करेगा।अब तो वह भी यह सोचेगा, फूल खिल जाना काफी है, खिल जाएंगे। और खिलना तो एक लंबी शृंखला का हिस्सा है।जब लोग समझ लेते हैं

कि कुछ नहीं करना है तो जो कर रहे थे वह भी छोड़ देते हैं।और जिस फूल के खिलने की बात हैं; वह फूल भी नहीं खिलता।
क्रमशः
@Sanatan


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।। श्री महामृत्युंजय।।
(२)
मृत्यु का भय दिखाकर ही शासन किया जाता है। किसी के चरित्र को मृत्यु प्रदान कर दो किसी को व्यर्थ में बदनाम कर दो किसी को षड्यंत्र रच कर जेल भेज दो किसी को मजबूरी का फायदा उठाकर शोषण करो पैसे के दम पर गुलाम बना लो अंग प्रत्यंग खरीद लो अर्थात " समर्थ को नाही दोष गोसाई "वाली बात सच कर दो।इसी विषाक्त मानसिकता वाले को मुक्ति प्रदान करते हैं भगवान शिव। निरीह का महा अस्त्र है महामृत्युंजय बल। निरीह के देवता हैं महामृत्युंजय शिव नाथों के नाथ हैं शंम्भू। समस्त मानवीय संकटों से विष भरे अवरोधों से निवृत्ति होती है महामृत्युंजय साधना के द्वारा। तुलसीदास ने कहा " समर्थ को नहीं दोष गोसाई ", वह भी समाज के इस चलन को देख रहे थे फिर उन्होंने शिवोपासना कि भगवान विश्वनाथ के सानिध्य में और बोल उठे "जाको राखे साइयां मार सके ना कोई "। उन्होंने सरल रामायण लिखी कट्टरपंथी ब्राह्मणों ने उनकी रामायण उठाकर गंगा जी में फेंक दी। दूसरे ही दिन रामायण पुनः विश्वनाथ मंदिर में शिव के समक्ष प्राप्त हुई। गंगा शिव के मस्तक पर ही विराजमान है भला उसकी क्या औकात कि वह शिवेच्छा के विरुद्ध जाए और तुलसीदास की रामायण को वीलीन कर दे। तुलसीदास के विरोधी मर गए पर तुलसी रामायण आज भी गतिमान है क्योंकि महामृत्युंजय बल से वह संपुटित है। मनुष्य की हद का मुकाबला करता है महामृत्युंजय बल। मनुष्य चाहे जितनी हद कर ले जिसके साथ महामृत्युंजय बल होता है जिस कार्य में शिवेच्छा होती है जिसके हृदय में शिव स्थापित होते हैं वह तो अमर होकर ही रहता है। जिस घर में शिवलिंग होगा वहां अकाल मृत्यु तांडव कदापि नहीं कर सकती। जिसके हाथ में शिवलिंग पर बेल्वपत्र चढ़ाई होगी उसके अंग प्रत्यंग खंडित नहीं होंगे जिसके मुख पर शिव स्तोत्र होंगे वह कैंसर से नहीं मरेगा यह वायदा है एक शिव भक्त का। जिस स्त्री ने शिवरात्रि का व्रत किया होगा वह सादा सौभाग्यवती निश्चित ही होगी और जिस साधक ने शिवरात्रि गुरु के सानिध्य में संपन्न की होगी उसके आध्यात्मिक यात्रा निरंकुश जारी रहेगी ब्रह्मांड में उसे कोई नहीं रोक सकता। गुरु अगर सदमार्गी होगा तो शिष्य को अवश्य अपने हाथों से शिवलिंग प्रदान करेगा गुरु शिष्य और शिवलिंग यही है महामृत्युंजय साधना।
काल के अंतर्गत भ्रमण करते करते जिव काल आधारित हो जाता है अर्थात वह तत्व निर्भर हो जाता है जो कि स्वयं मृत्यु के हेतु है। मछली को जल से निकाल दो दूसरे ही क्षण मृत्यु हो जाएगी उसका संपूर्ण शरीर जल आधारित हो गया है। पक्षी के पर काट दो जीवन समाप्त हो जाएगा। पृथ्वी उसकी मृत्यु का कारण बन जाएगी। मनुष्य ज्यादा से ज्यादा कुछ घंटे ही जल में रह सकता है समययोपरांत उसका शरीर भी विखंडित होने लगेगा। व्यक्ति अगर धन आधारित समाज आधारित नियम मर्यादा आधारित जीव बन जाता है तो आधारित तत्व के अभाव में वह दूसरे ही क्षण मृत्यु को प्राप्त कर लेता है। अकबर ने राजपूतों पर हमला किया। क्षत्रिय मान मर्यादा आधारित जीते हैं हजारों क्षत्राणियों मैं अपने मान मर्यादा की रक्षा हेतु जलती चिताओं में जौहर कर लिया। अकबर दंग रह गया। यह शक्ति कहां से आई? निश्चित ही क्षत्राणियों के लिए आत्म सम्मान ही जीवन है एवं अपमान मृत्यु का द्योतक है एवं यह महामृत्युंजय साधना का ही प्रतीक है। प्रत्येक व्यक्ति के लिए जीवन की प्राथमिकताएं अलग-अलग है। जीवन प्राथमिकता आधारित है। प्राथमिकता निरंतर बनी रहे उसके मार्ग में अवरोध ना आए यही महामृत्युंजयी साधना का विधान है। शरीर नश्वर है पर वह भी जीवन की एक प्राथमिकता ही है परंतु सनातन धर्म शरीर आधारित कदापि नहीं है। अतः इस बात को ध्यान में रखना पड़ेगा कि महामृत्युंजय अनुष्ठान केवल शरीर की रक्षार्थ हेतु नहीं किया जाता नहीं तो अर्थ का अनर्थ हो जाएगा। सनातन धर्म की परिभाषा ही बदल जाएगी। कृष्ण के मुख से उच्चारित गीता का महत्व जनमानस में शून्य हो जाएगा जिसमें कहा गया है कि आत्मा अजर अमर है और शरीर नश्वर। आत्मा पुनः तत्वाधार के हिसाब से नवीन शरीर ग्रहण कर लेगी और धारा निरंतर बहती रहेगी। धारा निरंतर बहती रहे, धारा एक इकाई के रूप में अपना निर्धारित कार्यकाल पूरा कर ले यही वृहद महामृत्युंजय उपासना का चिंतन है। शिव की उपासना होती रहे भारत भूमि पर शिवभक्त निरंतर प्रकाश मान रहे और उनकी आयु पूणायु हो यही शिवोपासना का रहस्य है
@Sanatan


.
श्री महामृत्युंजय
(१)
मनुष्य की प्राथमिकताएं बदलती रहती है। सर्वप्रथम मनुष्य सुख समृद्धि चाहता है यह मनुष्य की सार्वभौमिक आवश्यकता है परंतु हा भी आवश्यकता है जीवन की रक्षा। लाखों लोग अपना घर बार सुखी एवं समृद्ध जीवन रिश्ते नातेदार और वंशजों की भूमि को छोड़कर पलायन कर जाते हैं। विश्व के मानचित्र पर शरणार्थियों की भीड़ देखने को मिलती है। जीवन बचाना जिव का आदि लक्षण है और इसके लिए वह सब कुछ करने को तैयार हो जाता है। मुख्य बात यह है कि सुख समृद्धि के साधन पुनः जुटाए जा सकते हैं जीवन में रिश्ते नए सिरे से बनाए जा सकते हैं सब कुछ पुनः निर्मित किया जा सकता है परंतु प्राण शरीर से निकल गए तो पुनर्वावापिस उस शरीर में संभव नहीं हो पाती। अतः महामृत्युंजय अनुष्ठान के द्वारा प्राणमय शरीर पर आने वाले प्रत्येक संकट को हाराया जाता है। जब तक अंतिम सांस बाकी रहती है प्राण को शरीर में पुनः ठीक से व्यवस्थित करने के लिए ही यह अनुष्ठान संपन्न किया जाता है। जिव की महामृत्युंजय शिव से यह जीवनदान की याचना है पूर्ण आत्मसमर्पण है शिव के चरणों में जीवन की लय को निरंतर बनाए रखने हेतु। जीवन किसी गाने की कैसेट के समान नहीं है कि उसे फिर से शुरुआत से सुना जा सके एक बार खत्म तो फिर खत्म। अतः जीवन की सांसो को बढ़ाने एवं कम से कम जितनी स्वास ईश्वर ने दी है उसे भोगने का विधान है महामृत्युंजय अनुष्ठान
क्रमशः
@Sanatan


।।ॐ हौं जूं सः ॐ भूर्भुवः स्वः ॐ त्र्यम्‍बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् उर्वारुकमिव बन्‍धनान् मृत्‍योर्मुक्षीय मामृतात् ॐ स्वः भुवः भूः ॐ सः जूं हौं ॐ ।।


गीता जी के 18 अध्यायो का संक्षेप में (हिंदी सारांश)। (५)
सोलहवां अध्याय
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सोलहवें अध्याय में देवासुर संपत्ति का विभाग बताया गया है। आरंभ से ही ऋग्देव में सृष्टि की कल्पना देवी और आसुरी शक्तियों के रूप में की गई है। यह सृष्टि के द्विविरुद्ध रूप की कल्पना है, एक अच्छा और दूसरा बुरा। एक प्रकाश में, दूसरा अंधकार में। एक अमृत, दूसरा मर्त्य। एक सत्य, दूसरा अनृत। भगवान कृष्ण ने कहा की अनेक प्रकार की चिन्ताओं से भ्रमित होकर विषय-भोगों में आसक्त आसुरी स्वभाव वाले मनुष्य नरक में जाते हैं। आसुरी स्वभाव वाले व्यक्ति स्वयं को ही श्रेष्ठ मानते हैं और वे बहुत ही घमंडी होते हैं। ऐसे मनुष्य धन और झूठी मान-प्रतिष्ठा के मद में लीन होकर केवल नाम-मात्र के लिये बिना किसी शास्त्र-विधि के घमण्ड के साथ यज्ञ करते हैं। आसुरी स्वभाव वाले ईष्यालु, क्रूरकर्मी और मनुष्यों में अधम होते हैं, ऐसे अधम मनुष्यों को मैं संसार रूपी सागर में निरन्तर आसुरी योनियों में ही गिराता रहता हूं ।

सत्रहवां अध्याय
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सत्रहवें अध्याय में भगवान श्री कृष्ण ने बताया कि सत, रज और तम जिसमें इन तीन गुणों का प्रादुर्भाव होता है, उसकी श्रद्धा या जीवन की निष्ठा वैसी ही बन जाती है। इसका संबंध सत, रज और तम, इन तीन गुणों से ही है, अर्थात् जिसमें जिस गुण का प्रादुर्भाव होता है, उसकी श्रद्धा या जीवन की निष्ठा वैसी ही बन जाती है। यज्ञ, तप, दान, कर्म ये सब तीन प्रकार की श्रद्धा से संचालित होते हैं। यहाँ तक कि आहार भी तीन प्रकार का है। उनके भेद और लक्षण गीता ने यहाँ बताए हैं। जिस प्रकार यज्ञ से, तप से और दान से जो स्थिति प्राप्त होती है, उसे भी "सत्‌" ही कहा जाता है और उस परमात्मा की प्रसन्नता लिए जो भी कर्म किया जाता है वह भी निश्चित रूप से "सत्‌" ही कहा जाता है। बिना श्रद्धा के यज्ञ, दान और तप के रूप में जो कुछ भी सम्पन्न किया जाता है, वह सभी "असत्‌" कहा जाता है, इसलिए वह न तो इस जन्म में लाभदायक होता है और न ही अगले जन्म में लाभदायक होता है।

अठारवां अध्याय
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अठारवें अध्याय में गीता के समस्त उपदेशों का सार एवं उपसंहार है। जो बुद्धि धर्म-अधर्म, बंधन-मोक्ष, वृत्ति-निवृत्ति को ठीक से पहचानती है, वही सात्विकी बुद्धि है और वही मानव की सच्ची उपलब्धि है। पृथ्वी के मानवों में और स्वर्ग के देवताओं में कोई भी ऐसा नहीं जो प्रकृति के चलाए हुए इन तीन गुणों से बचा हो। मनुष्य को बहुत देख भालकर चलना आवश्यक है जिससे वह अपनी बुद्धि और वृत्ति को बुराई से बचा सके और क्या कार्य है, क्या अकार्य है, इसको पहचान सके। धर्म और अधर्म को, बंध और मोक्ष को, वृत्ति और निवृत्ति को जो बुद्धि ठीक से पहचनाती है, वही सात्विकी बुद्धि है और वही मानव की सच्ची उपलब्धि है। जो मनुष्य श्रद्धा पूर्वक इस गीताशास्त्र का पाठ और श्रवण करते हैं वे सभी पापों से मुक्त होकर श्रेष्ठ लोक को प्राप्त होते हैं।
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गीता जी के 18 अध्यायो का संक्षेप में (हिंदी सारांश)। (४)
ग्यारहवां अध्याय
〰️〰️〰️〰️〰️ ग्यारहवें अध्याय में अर्जुन ने भगवान का विश्वरूप देखा। विराट रूप का अर्थ है मानवीय धरातल और परिधि के ऊपर जो अनंत विश्व का प्राणवंत रचनाविधान है, उसका साक्षात दर्शन। विष्णु का जो चतुर्भुज रूप है, वह मानवीय धरातल पर सौम्यरूप है। विष्णु का जो चतुर्भुज रूप है, वह मानवीय धरातल पर सौम्यरूप है। जब अर्जुन ने भगवान का विराट रूप देखा तो उसके मस्तक का विस्फोटन होने लगा। 'दिशो न जाने न लभे च शर्म' ये ही घबराहट के वाक्य उनके मुख से निकले और उसने प्रार्थना की कि मानव के लिए जो स्वाभाविक स्थिति ईश्वर ने रखी है, वही पर्याप्त है।

बारहवां अध्याय
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बारहवें अध्याय में श्री कृष्ण ने बताया कि जो भगवान के ध्यान में लग जाते हैं वे भगवन्निष्ठ होते हैं अर्थात भक्ति से भक्ति पैदा होती है। नौ प्रकार की साधना भक्ति हैं तथा इनके आगे प्रेमलक्षणा भक्ति साध्य भक्ति है जो कर्मयोग और ज्ञानयोग सबकी साध्य है। भगवान कृष्ण ने कहा जो मनुष्य अपने मन को स्थिर करके निरंतर मेरे सगुण रूप की पूजा में लगा रहता है, वह मेरे द्वारा योगियों में अधिक पूर्ण सिद्ध योगी माने जाते हैं। वहीं जो मनुष्य परमात्मा के सर्वव्यापी, अकल्पनीय, निराकार, अविनाशी, अचल स्थित स्वरूप की उपासना करता है और अपनी सभी इन्द्रियों को वश में करके, सभी परिस्थितियों में समान भाव से रहते हुए सभी प्राणीयों के हित में लगा रहता है वह भी मुझे प्राप्त करता है। भगवान कृष्ण ने अर्जुन से कहा की तू अपने मन को मुझमें ही स्थिर कर और मुझमें ही अपनी बुद्धि को लगा, इस प्रकार तू निश्चित रूप से मुझमें ही सदैव निवास करेगा। यदि तू ऐसा नही कर सकता है, तो भक्ति-योग के अभ्यास द्वारा मुझे प्राप्त करने की इच्छा उत्पन्न कर। अगर तू ये भी नही कर सकता है, तो केवल मेरे लिये कर्म करने का प्रयत्न कर, इस प्रकार तू मेरे लिये कर्मों को करता हुआ मेरी प्राप्ति रूपी परम-सिद्धि को प्राप्त करेगा।

तेरहवां अध्याय
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तेरहवें अध्याय में एक सीधा विषय क्षेत्र और क्षेत्रज्ञ का विचार है। यह शरीर क्षेत्र है, उसका जानने वाला जीवात्मा क्षेत्रज्ञ है। गुणों की साम्यावस्था का नाम प्रधान या प्रकृति है। गुणों के वैषम्य से ही वैकृत सृष्टि का जन्म होता है। अकेला सत्व शांत स्वभाव से निर्मल प्रकाश की तरह स्थिर रहता है और अकेला तम भी जड़वत निश्चेष्ट रहता है। किंतु दोनों के बीच में छाया हुआ रजोगुण उन्हें चेष्टा के धरातल पर खींच लाता है। गति तत्व का नाम ही रजस है। भगवान् कृष्ण ने कहा कि मेरे अतिरिक्त अन्य किसी वस्तु को प्राप्त न करने का भाव, बिना विचलित हुए मेरी भक्ति में स्थिर रहने का भाव, शुद्ध एकान्त स्थान में रहने का भाव, निरन्तर आत्म-स्वरूप में स्थित रहने का भाव और तत्व-स्वरूप परमात्मा से साक्षात्कार करने का भाव यह सब तो मेरे द्वारा ज्ञान कहा गया है और इनके अतिरिक्त जो भी है वह अज्ञान है।

चौदहवां अध्याय
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चौदहवें अध्याय में समस्त वैदिक, दार्शनिक और पौराणिक तत्वचिंतन का निचोड़ है-सत्व, रज, तम नामक तीन गुण-त्रिको की अनेक व्याख्याएं हैं। जो मूल या केंद्र है, जिसे ऊर्ध्व कहते हैं, वह ब्रह्म ही है एक ओर वह परम तेज, जो विश्वरूपी अश्वत्थ को जन्म देता है, सूर्य और चंद्र के रूप में प्रकट है, दूसरी ओर वही एक एक चैतन्य केंद्र में या प्राणि शरीर में आया हुआ है। जैसा गीता में स्पष्ट कहा है-अहं वैश्वानरो भूत्वा प्राणिनां देहमाश्रित: । वैश्वानर या प्राणमयी चेतना से बढ़कर और दूसरा रहस्य नहीं है। नर या पुरुष तीन हैं-क्षर, अक्षर और अव्यय। पंचभूतों का नाम क्षर है, प्राण का नाम अक्षर है और मनस्तत्व या चेतना की संज्ञा अव्यय है। इन्हीं तीन नरों की एकत्र स्थिति से मानवी चेतना का जन्म होता है उसे ही ऋषियों ने वैश्वानर अग्नि कहा है।

पंद्रहवां अध्याय
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पंद्रहवें अध्याय में भगवान श्री कृष्ण ने विश्व के अश्वत्थ रूप का वर्णन किया है। यह अश्वत्थ रूपी संसार महान विस्तार वाला है। वह ब्रह्म ही है एक ओर वह परम तेज, जो विश्वरूपी अश्वत्थ को जन्म देता है, सूर्य और चंद्र के रूप में प्रकट है। यह सृष्टि के द्विविरुद्ध रूप की कल्पना है, एक अच्छा और दूसरा बुरा। एक प्रकाश में, दूसरा अंधकार में। एक अमृत, दूसरा मर्त्य। एक सत्य, दूसरा अनृत। नर या पुरुष तीन हैं-क्षर, अक्षर और अव्यय। पंचभूतों का नाम क्षर है, प्राण का नाम अक्षर है और मनस्तत्व या चेतना की संज्ञा अव्यय है। इन्हीं तीन नरों की एकत्र स्थिति से मानवी चेतना का जन्म होता है उसे ही ऋषियों ने वैश्वानर अग्नि कहा है।
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गीता जी के 18 अध्यायो का संक्षेप में (हिंदी सारांश)। (२)
चाहिए।

पाँचवा अध्याय
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पाँचवे अध्याय में भगवान श्री कृष्ण ने कहा कि कर्म के साथ जो मन का संबंध है, उसके संस्कार पर या उसे विशुद्ध करने पर विशेष ध्यान दिलाया गया है। किसी एक मार्ग पर ठीक प्रकार से चले तो समान फल प्राप्त होता है। जीवन के जितने कर्म हैं, सबको समर्पण कर देने से व्यक्ति एकदम शांति के ध्रुव बिंदु पर पहुँच जाता है। किसी एक मार्ग पर ठीक प्रकार से चले तो समान फल प्राप्त होता है। जीवन के जितने कर्म हैं, सबको समर्पण कर देने से व्यक्ति एकदम शांति के ध्रुव बिंदु पर पहुँच जाता है और जल में खिले कमल के समान कर्म रूपी जल से लिप्त नहीं होता।

छठा अध्याय
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भगवान श्री कृष्ण ने छठे अध्याय में कहा कि जितने विषय हैं उन सबसे इंद्रियों का संयम ही कर्म और ज्ञान का निचोड़ है। सुख में और दुख में मन की समान स्थिति, इसे ही योग कहा जाता है। जब मनुष्य सभी सांसारिक इच्छाओं का त्याग करके बिना फल की इच्छा के कोई कार्य करता है तो उस समय वह मनुष्य योग मे स्थित कहलाता है। जो मनुष्य मन को वश में कर लेता है, उसका मन ही उसका सबसे अच्छा मित्र बन जाता है, लेकिन जो मनुष्य मन को वश में नहीं कर पाता है, उसके लिए वह मन ही उसका सबसे बड़ा शत्रु बन जाता है। जिसने अपने मन को वश में कर लिया उसको परमात्मा की प्राप्ति होती है और जिस मनुष्य को ज्ञान की प्राप्ति हो जाती है उसके लिए सुख-दुःख, सर्दी-गर्मी और मान-अपमान सब एक समान हो जाते हैं। ऐसा मनुष्य स्थिर चित्त और इन्द्रियों को वश में करके ज्ञान द्वारा परमात्मा को प्राप्त करके हमेशा सन्तुष्ट रहता है।

सातवां अध्याय
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सातवें अध्याय में श्री कृष्ण ने कहा कि सृष्टि के नानात्व का ज्ञान विज्ञान है और नानात्व से एकत्व की ओर प्रगति ज्ञान है। ये दोनों दृष्टियाँ मानव के लिए उचित हैं। इस अध्याय में भगवान के अनेक रूपों का उल्लेख किया गया है जिनका और विस्तार विभूतियोग नामक दसवें अध्याय में आता है। यहीं विशेष भगवती दृष्टि का भी उल्लेख है जिसका सूत्र-वासुदेव: सर्वमिति, सब वसु या शरीरों में एक ही देवतत्व है, उसी की संज्ञा विष्णु है। किंतु लोक में अपनी अपनी रु चि के अनुसार अनेक नामों और रूपों में उसी एक देवतत्व की उपासना की जाती है। वे सब ठीक हैं। किंतु अच्छा यही है कि बुद्धिमान मनुष्य उस ब्रह्मतत्व को पहचाने जो अध्यात्म विद्या का सर्वोच्च शिखर है।

आठवां अध्याय
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आठवें अध्याय में श्री कृष्ण ने बताया कि जीव और शरीर की संयुक्त रचना का ही नाम अध्यात्म है। देह के भीतर जीव, ईश्वर तथा भूत ये तीन शक्तियाँ मिलकर जिस प्रकार कार्य करती हैं उसे अधियज्ञ कहते हैं। उपनिषदों में अक्षर विद्या का विस्तार हुआ और गीता में उस अक्षरविद्या का सार कह दिया गया है-अक्षर ब्रह्म परमं, अर्थात् परब्रह्म की संज्ञा अक्षर है। मनुष्य, अर्थात् जीव और शरीर की संयुक्त रचना का ही नाम अध्यात्म है। जीवसंयुक्त भौतिक देह की संज्ञा क्षर है और केवल शक्तितत्व की संज्ञा आधिदैवक है। देह के भीतर जीव, ईश्वर तथा भूत ये तीन शक्तियाँ मिलकर जिस प्रकार कार्य करती हैं उसे अधियज्ञ कहते हैं।

नवां अध्याय
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नवें अध्याय में भगवान श्री कृष्ण ने कहा कि वेद का समस्त कर्मकांड यज्ञ, अमृत, मृत्यु, संत-असंत और जितने भी देवी-देवता हैं सबका पर्यवसान ब्रह्म में है। इस क्षेत्र में ब्रह्मतत्व का निरूपण ही प्रधान है, उसी से व्यक्त जगत का बारंबार निर्माण होता है। वेद का समस्त कर्मकांड यज्ञ, अमृत, और मृत्यु, संत और असंत, और जितने भी देवी देवता है, सबका पर्यवसान ब्रह्म में है। लोक में जो अनेक प्रकार की देवपूजा प्रचलित है, वह भी अपने अपने स्थान में ठीक है, समन्वय की यह दृष्टि भागवत आचार्यों को मान्य थी, वस्तुत: यह उनकी बड़ी शक्ति थी।

दसवां अध्याय
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दसवें अध्याय का सार यह है कि लोक में जितने देवता हैं, सब एक ही भगवान की विभूतियाँ हैं, मनुष्य के समस्त गुण और अवगुण भगवान की शक्ति के ही रूप हैं। इसका सार यह है कि लोक में जितने देवता हैं, सब एक ही भगवान, की विभूतियाँ हैं, मनुष्य के समस्त गुण और अवगुण भगवान की शक्ति के ही रूप हैं। बुद्धि से इन देवताओं की व्याख्या चाहे न हो सके किंतु लोक में तो वह हैं ही। कोई पीपल को पूज रहा है। कोई पहाड़ को कोई नदी या समुद्र को, कोई उनमें रहनेवाले मछली, कछुओं को। यों कितने देवता हैं, इसका कोई अंत नहीं। विश्व के इतिहास में देवताओं की यह भरमार सर्वत्र पाई जाती है। भागवतों ने इनकी सत्ता को स्वीकारते हुए सबको विष्णु का रूप मानकर समन्वय की एक नई दृष्टि प्रदान की। इसी का नाम विभूतियोग है। जो सत्व जीव बलयुक्त अथवा चमत्कारयुक्त है, वह सब भगवान का रूप है। इतना मान लेने से चित्त निर्विरोध स्थिति में पहुँच जाता है।
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गीता जी के 18 अध्यायो का संक्षेप में (हिंदी सारांश). (१)
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भगवान श्री कृष्ण ने महाभारत के युद्ध में अर्जुन को गीता का उपदेश दिया और इसी उपदेश को सुनकर अर्जुन को ज्ञान की प्राप्ति हुई। गीता का उपदेश मात्र अर्जुन के लिए नहीं था बल्कि ये समस्त जगत के लिए था, अगर कोई व्यक्ति गीता में दिए गए उपदेश को अपने जीवन में अपनाता है तो वह कभी किसी से परास्त नहीं हो सकता है। गीता माहात्म्य में उपनिषदों को गाय और गीता को उसका दूध कहा गया है। इसका अर्थ है कि उपनिषदों की जो अध्यात्म विद्या है , उसको गीता सर्वांश में स्वीकार करती है। गीता के 18 अध्याय में क्या संदेश छिपा हुआ है आइए संक्षिप्त में जाने...
पहला अध्याय
〰️〰️〰️〰️अर्जुन ने युद्ध भूमि में भगवान श्री कृष्ण से कहा कि मुझे तो केवल अशुभ लक्षण ही दिखाई दे रहे हैं, युद्ध में स्वजनों को मारने में मुझे कोई कल्याण दिखाई नही देता है। मैं न तो विजय चाहता हूं, न ही राज्य और सुखों की इच्छा करता हूं, हमें ऐसे राज्य, सुख अथवा इस जीवन से भी क्या लाभ है। जिनके साथ हमें राज्य आदि सुखों को भोगने की इच्छा है, जब वह ही अपने जीवन के सभी सुखों को त्याग करके इस युद्ध भूमि में खड़े हैं। मैं इन सभी को मारना नहीं चाहता हूं, भले ही यह सभी मुझे ही मार डालें लेकिन अपने ही कुटुम्बियों को मारकर हम कैसे सुखी हो सकते हैं। हम लोग बुद्धिमान होकर भी महान पाप करने को तैयार हो गए हैं, जो राज्य और सुख के लोभ से अपने प्रियजनों को मारने के लिए आतुर हो गए हैं। इस प्रकार शोक से संतप्त होकर अर्जुन युद्ध-भूमि में धनुष को त्यागकर रथ पर बैठ गए तब भगवान श्री कृष्ण ने अपने कर्तव्य को भूल बैठे अर्जुन को उनके कर्तव्य और कर्म के बारे में बताया। भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को जीवन के सच के परिचित कराया। कृष्ण ने अर्जुन की स्थिति को भांप लिया भगवान कृष्ण समझ गए की अर्जुन का शरीर ठीक है लेकिन युद्ध आरंभ होने से पहले ही उसका मनोबल टूट चुका है। बिना मन के यह शरीर खड़ा नहीं रह सकता। अत: भगवान कृष्ण ने एक गुरु का कर्तव्य निभाते हुए तर्क, बुद्धि, ज्ञान, कर्म की चर्चा, विश्व के स्वभाव, उसमें जीवन की स्थिति और उस सर्वोपरि परम सत्तावान ब्रह्म के साक्षात दर्शन से अर्जुन के मन का उद्धार किया।
दूसरा अध्याय
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दूसरे अध्याय में भगवान श्री कृष्ण ने बताया कि जीना और मरना, जन्म लेना और बढ़ना, विषयों का आना और जाना। सुख और दुख का अनुभव, ये तो संसार में होते ही हैं। काल की चक्रगति इन सब स्थितियों को लाती है और ले जाती है। जीवन के इस स्वभाव को जान लेने पर फिर शोक नहीं होता। काम, क्रोध, भय, राग, द्वेष से मन का सौम्यभाव बिगड़ जाता है और इंद्रियां वश में नहीं रहती हैं ।इंद्रियजय ही सबसे बड़ी आत्मजय है। बाहर से कोई विषयों को छोड़ भी दे तो भी भीतर का मन नहीं मानता। विषयों का स्वाद जब मन से जाता है, तभी मन प्रफुल्लित, शांत और सुखी होता है। समुद्र में नदियां आकर मिलती हैं पर वह अपनी मर्यादा नहीं छोड़ता। ऐसे ही संसार में रहते हुए, उसके व्यवहारों को स्वीकारते हुए, अनेक कामनाओं का प्रवेश मन में होता रहता है। किंतु उनसे जिसका मन अपनी मर्यादा नहीं खोता उसे ही शांति मिलती हैं। इसे प्राचीन अध्यात्म परिभाषा में गीता में ब्राह्मीस्थिति कहा है।
तीसरा अध्याय
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तीसरे अध्याय में भगवान श्री कृष्ण ने बताया कि कोई व्यक्ति कर्म छोड़ ही नहीं सकता। कृष्ण ने अपना दृष्टांत देकर कहा कि मैं नारायण का रूप हूं, मेरे लिए कुछ कर्म शेष नहीं है। फिर भी मैं तंद्रारहित होकर कर्म करता हूं और अन्य लोग मेरे मार्ग पर चलते हैं। अंतर इतना ही है कि जो मूर्ख हैं वे लिप्त होकर कर्म करते हैं पर ज्ञानी असंग भाव से कर्म करता हैं। गीता में यहीं एक साभिप्राय शब्द बुद्धिभेद है। अर्थात् जो साधारण समझ के लोग कर्म में लगे हैं उन्हें उस मार्ग से उखाड़ना उचित नहीं, क्योंकि वे ज्ञानवादी बन नहीं सकते और यदि उनका कर्म भी छूट गया तो वे दोनों ओर से भटक जाएँगे। प्रकृति व्यक्ति को कर्म करने के लिए बाध्य करती है। जो व्यक्ति कर्म से बचना चाहता है वह ऊपर से तो कर्म छोड़ देता है पर मन ही मन उसमे डूबा रहता है।
चौथा अध्याय
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चौथे अध्याय में बताया गया है कि ज्ञान प्राप्त करके कर्म करते हुए भी कर्मसंन्यास का फल किस उपाय से प्राप्त किया जा सकता है। यह गीता का वह प्रसिद्ध आश्वासन है कि जब जब धर्म की ग्लानि होती है तब तब मनुष्यों के बीच भगवान का अवतार होता है, अर्थात् भगवान की शक्ति विशेष रूप से मूर्त होती है। यहीं पर एक वाक्य विशेष ध्यान देने योग्य है- क्षिप्रं हि मानुषे लोके सिद्धिर्भवति कर्मजा। 'कर्म से सिद्धि'-इससे बड़ा प्रभावशाली सूत्र गीतादर्शन में नहीं है। किंतु गीतातत्व इस सूत्र में इतना सुधार और करता है कि वह कर्म असंग भाव से अर्थात् फलाशक्ति से बचकर करना
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गीता जी के 18 अध्यायो का संक्षेप में (हिंदी सारांश). 👇


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अतिचेतन तक को वश में कर लेता है ध्यान

मन की गंगा में विचार व भावनाओं का जल बहता है। इसे प्रदूषण मुक्त करना एवं इस प्रवाह को नियंत्रित करना, इसे ऊर्जा केन्द्र के रूप में परिवर्तित करना ध्यानयोग के साधक की अगली चुनौती है। जिस तरह से नदी के जल पर बाँध बनाकर उस जल के वेग को शक्ति में परिवर्तित किया जाता है। कुछ इसी तरह की चुनौती ध्यान के साधक की भी होती है। यदि जलधारा के वेग को नियंत्रित न किया जा सका, तो इससे टरबाइन चलाना सम्भव नहीं होगा और फिर विद्युत् उत्पादन न हो सकेगा। ध्यान के साधक को भी अपने विचार व भाव प्रवाह को ध्येय की लय में बाँधना पड़ता है।

निरन्तर प्रयास से ऐसा हो पाता है। पवित्र ध्येय के साथ जब मन लय पूर्ण होता है, तो न केवल विचार एवं भावनाएँ शुद्ध होती हैं, बल्कि उनमें ऊर्जस्विता आती है और ये सचमुच ही लेजर किरणों के पुञ्ज में बदल जाती है। अभी की स्थिति में तो हमारी ऊर्जा टिमटिमाहट की भाँति है, इससे कोई विशेष कार्य नहीं सध सकता। ध्यान की प्रक्रिया में आध्यात्मिक शल्य चिकित्सा के लिए मन की तरंगों का लेजर किरणों के पुञ्ज में परिवर्तित होना अनिवार्य है। यही वह उपकरण है, जिसके प्रकाश में अचेतन की गहराइयों में उतरना सम्भव हो जाता है। इसी के द्वारा अचेतन के संस्कारों की शल्य क्रिया बन पड़ती है। यह प्रक्रिया जटिल है, कठिन है, दुरूह है, दुष्कर है। यह श्रम साध्य भी है और समय साध्य भी।

चेतन मन की तरंगों से जो लेजर किरणों का पुञ्ज तैयार होता है, उसी से अचेतन के संस्कारों को देखना एवं इन्हें हटाना बन पड़ता है। ये संस्कार परत दर परत होते हैं। इनकी परतों में भारी विविधताएँ होती हैं, जो कालक्रम से प्रकट होती हैं। यह विविधता परस्पर विरोधाभासी भी हो सकती है। उदाहरण के लिए एक परत में साधना के संस्कार हो सकते हैं, तो दूसरी में वासना के। एक परत में साधुता के संस्कार हो सकते हैं, तो दूसरी में शैतानियत के। इस सत्य को ठीक तरह से जानने के लिए ध्यान के गहरे अनुभव से गुजरना निहायत जरूरी है।

सामान्य जीवन के उदाहरण से समझना हो, तो यही कहेंगे कि जिस तरह बीज में वृक्ष का समूचा अस्तित्व छिपा होता है, उसी तरह से अचेतन की परतों में मनुष्य का सम्पूर्ण व्यक्तित्व समाया होता है। बीज से पहले कोपलें एवं जड़ें निकलती हैं, उसकी कोमलता को देख औसत व्यक्ति यह नहीं सोच सकता कि इस वट बीज में कितना वृहत् आकार छुपा है, परन्तु कालक्रम में धीरे-धीरे सब प्रकट होता है। जेनेटिक्स को जानने वाला कुशल वैज्ञानिक अपने कतिपय प्रक्रियाओं से उसमें कुछ परिवर्तन भी कर सकता है।**ठीक यही बात ध्यान के बारे में है-इस प्रयोग में ध्यान विज्ञानी अचेतन के संस्कारों का आवश्यक परिष्कार, परिमार्जन यहाँ तक कि रूपान्तरण तक करने में समर्थ होते हैं।**

इतना ही अचेतन के अँधेरों से निकल अतिचेतन के प्रकाशमय लोक में प्रवेश करते हैं। और तब आती है वह स्थिति, जिसके लिए महर्षि पतंजलि कहते हैं कि योगी हो जाता है मालिक, अतिसूक्ष्म परमाणु से लेकर अपरिसोम तक का। क्योंकि अतिचेतन के पास सारी शक्ति होती है। वह होता है सर्वशक्तिमान, वह होता है सर्वत्र, वह होता है सर्वव्यापी। अतिचेतन के पास वह हर एक शक्ति होती है, जो सम्भव होती है। यह वह स्तर है, जहाँ सारे असम्भव सम्भव बनते हैं।
@Sanatan


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अग्नि सूक्तम
(४)
१. ॐ अग्निमीले पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम होतारं रत्नधातमम ॥१॥

I glorify Agni, the high priest of sacrifice, the divine, the ministrant, who is the offerer and possessor of greatest wealth.

हम अग्निदेव की स्तुति करते है (कैसे अग्निदेव?)
जो यज्ञ (श्रेष्ठतम पारमार्थिक कर्म) के पुरोहित (आगे बढाने वाले ),
देवता (अनुदान देनेवाले), ऋत्विज ( समयानुकूल यज्ञ का सम्पादन करनेवाले), होता (देवो का आवाहन करनेवाले) और याचको को रत्नों से (यज्ञ के लाभों से ) विभूषित करने वाले है ॥१॥

२. अग्नि पूर्वेभिॠषिभिरिड्यो नूतनैरुत । स देवाँ एह वक्षति ॥२॥

May that Agni, who is worthy to be praised by ancient and modern sages,gather the Gods here.

जो अग्निदेव पूर्वकालिन ऋषियो (भृगु, अंगिरादि ) द्वारा प्रशंसित है। जो आधुनिक काल मे भी ऋषि कल्प वेदज्ञ विद्वानो द्वारा स्तुत्य है , वे अग्निदेव इस यज्ञ मे देवो का आवाहन करे ॥२॥

३. अग्निना रयिमश्न्वत् पोषमेव दिवेदिवे। यशसं वीरवत्तमम् ॥३॥

Through Agni, one gets lot of wealth that increases day by day. One gets fame and the best progeny.

(स्तोता द्वारा स्तुति किये जाने पर) ये बढा़ने वाले अग्निदेव मनुष्यो (यजमानो) को प्रतिदिन विवर्धमान (बढ़ने वाला) धन, यश एवं पुत्र-पौत्रादि वीर् पुरूष प्रदान करनेवाले हैं ॥३॥

४. अग्ने यं यज्ञमध्वरं विश्वत: परिभूरसि। स इद्देवेषु गच्छति ॥४॥

O Agni, you are surrounding the non-violent sacrifice on all sides, that
which indeed reaches (in) the gods.

हे अग्निदेव। आप सबका रक्षण करने मे समर्थ है। आप जिस अध्वर (हिंसारहित यज्ञ) को सभी ओर से आवृत किये रहते है, वही यज्ञ देवताओं तक पहुंचता है ॥४॥

५. अग्निहोर्ता कविक्रतु: सत्यश्चित्रश्रवस्तम: । देवि देवेभिरा गमत् ॥५॥

May Agni, the sacrificer, one who possesses immense wisdom, he who is true, has most distinguished fame, is divine, come hither with the gods.

हे अग्निदेव। आप हवि प्रदाता, ज्ञान और कर्म की संयुक्त शक्ति के प्रेरक, सत्यरूप एवं विलक्षण रूप् युक्त है। आप देवो के साथ इस यज्ञ मे पधारें ॥५॥

६. यदग्ङ दाशुषे त्वमग्ने भद्रं करिष्यसि । तवेत्तत् सत्यमग्ङिर: ॥६॥

O Agni, whatever good you will do and whatever possessions you bestow (upon the worshipper), that, O Angiras, is indeed your essence.

हे अग्निदेव। आप यज्ञकरने वाले यजमान का धन, आवास, संतान एवं पशुओ की समृद्धि करके जो भी कल्याण करते है, वह भविष्य के किये जाने वाले यज्ञो के माध्यम से आपको ही प्राप्त होता है॥६॥

७. उप त्वाग्ने दिवेदिवे दोषावस्तर्धिया वयम् । नमो भरन्त एमसि॥७॥

O Agni, the illuminer (dispeller) of darkness, we approach near thee (thy vicinity) with thought (willingness), day by day, while bearing obeisance.

हे जाज्वलयमान अग्निदेव । हम आपके सच्चे उपासक है। श्रेष्ठ बुद्धि द्वारा आपकी स्तुति करते है और दिन् रात, आपका सतत गुणगान करते हैं। हे देव। हमे आपका सान्निध्य प्राप्त हो ॥७॥

८.राजन्तमध्वराणां गोपांमृतस्य दीदिविम् । वर्धमानं स्वे दमे ॥८॥

(We approach) Thee, the shining (the radiant), the protector of noninjuring sacrifices, growing in your own dwelling, the bright star of truth.

हम गृहस्थ लोग दिप्तिमान, यज्ञो के रक्षक, सत्यवचनरूप व्रत को आलोकित करने वाले, यज्ञस्थल मे वृद्धि को प्राप्त करने वाले अग्निदेव के निकट स्तुतिपूर्वक आते हैं ॥८॥

९. स न: पितेव सूनवेग्ने सूपायनो भव । सचस्वा न: स्वस्तये ॥९॥

O Agni, be easily accessible to us, like a father to his son. Accompany us for our well being.

हे गाहर्पत्य अग्ने ! जिस प्रकार पुत्र को पिता (बिना बाधा के) सहज की प्राप्त होता है, उसी प्रकार् आप भी (हम यजमानो के लिये) बाधारहित होकर सुखपूर्वक प्राप्त हों। आप हमारे कल्याण के लिये हमारे निकट रहे ॥९॥
@Sanatan


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अग्नि सूक्तम
(३)
(13.) अग्नि के तीन शरीर :---
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अग्नि के तीन शरीर हैः--- स्थूल-शरीर सू्क्ष्म-शरीर और कारण-शरीर । हमारा अन्नमय-कोश और प्राणमय कोश वाला शरीर स्थूल शरीर है । मनोमय और विज्ञानमय कोश वाला शरीर सूक्ष्म शरीर है । आनन्दमय कोश वाला शरीर कारण शरीर हैः---"तिस्र उ ते तन्वो देववाता ।" (ऋग्वेदः--3.20.2)

अग्नि-सूक्त के मन्त्र :----
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(1.) ॐ अग्निमीऴे पुरोहितं यज्ञस्य देवमृत्विजम् ।
होतारं रत्नधातमम् ।।

(2.) ॐ अग्निः पूर्वेभिर्ऋषिभिरीड्यो नूतनैरुत ।
स देवाँ एह वक्षति ।।

(3.) ॐ अग्निना रयिमश्नवत् पोषमिव दिवेदिवे ।
यशसं वीरवत्तमम् ।।

(4.) ॐ अग्ने यं यज्ञमध्वरं विश्वतः परिभूरसि ।
स इद् देवेषु गच्छति ।।

(5.) ॐ अग्निर्होता कविक्रतुः सत्यश्चित्रश्रवस्तमः ।
देवो देवेभिरागमत् ।।

(6.) ॐ यदङ्ग दाशुषे त्वमग्ने भद्रं करिष्यसि ।
तवेत्तत् सत्यमङ्गिरः ।।

(7.) ॐ उप त्वाग्ने दिवे दिवे दोषावस्तर्धिया वयम् ।
मनो भरन्त एमसि ।।

(8.) ॐ राजन्तमध्वराणां गोपामृतस्य दीदिविम् ।
वर्धमानं स्वे दमे ।।

(9.) ॐ स नः पितेव सूनवेSग्ने सूपायनो भव ।
सचस्वा नः स्वस्तये ।।

(ऋग्वेदः--1.1.1--9)

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अग्नि सूक्तम
(२)

(1.) अग्नि का रूप :----
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अग्नि की पीठ घृत से निर्मित है---"घृतपृष्ठ"।
इसका मुख घृत से युक्त हैः--"घृतमुख" । इसकी जिह्वा द्युतिमान् है । दाँत स्वर्णिम, उज्ज्वल तथा लोहे के समान है । केश और दाढी भूरे रंग के हैं । जबडे तीखें हैं, मस्तक ज्वालामय है । इसके तीन सिर और सात रश्मियाँ हैं । इसके नेत्र घृतयुक्त हैंः--"घृतम् में चक्षुः ।" इसका रथ युनहरा और चमकदार है । उसे दो या दो से अधिक घोडे खींचते हैं । अग्नि अपने स्वर्णिम रथ में यज्ञशाला में बलि (हवि) ग्रहण करने के लिए देवताओं को बैठाकर लाते हैं । वह अपने उपासकों का सदैव सहायक होता है ।

(2.) अग्नि का जन्म :----
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अग्नि स्वजन्मा, तनूनपात् है । यह अपने आप से उत्पन्न होता है । अग्नि दो अरणियों के संघर्षण से उत्पन्न होता है । इसके लिए अन्य की आवश्यकता नहीं है । इसका अभिप्राय है कि अग्नि का जन्म अग्नि से ही हुआ है । प्रकृति के मूल में अग्नि (Energy) है । ऋग्वेद के "पुरुष-सूक्त" में अग्नि की उत्पत्ति "विराट्-पुरुष" के मुख से बताई गई हैः--"मुखादिन्द्रश्चाग्निश्च ।"

(3.) भोजन :----
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अग्नि का मुख्य भोजन काष्ठ और घृत है । "आज्य" उसका प्रिय पेय पदार्थ है । यह यज्ञ में दी जाने वाली हवि को ग्रहण करता है ।

(4.) अग्नि कविक्रतु है :----
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अग्नि कवि तुल्य है । वह अपना कार्य विचारपूर्वक करता है । कवि का अर्थ हैः--क्रान्तदर्शी, सूक्ष्मदर्शी, विमृश्यकारी । वह ज्ञानवान् और सूक्ष्मदर्शी है । उसमें अन्तर्दृष्टि है । ऐसा व्यक्ति ही सुखी होता हैः---"अग्निर्होता कविक्रतुः ।" (ऋग्वेदः---1.1.5)

(5.) गमन :----
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अग्नि का मार्ग कृष्ण वर्ण का है । विद्युत् रथ पर सवार होकर चलता है । जो प्रकाशमान्, प्रदीप्त, उज्ज्वल और स्वर्णिम है । वह रथ दो अश्वों द्वारा खींचा जाता है , जो मनोज्ञा, मनोजवा, घृतपृष्ठ, लोहित और वायुप्रेरित है ।

(6.) अग्नि रोग-शोक और पाप-शाप नाशक है :---==================================

अग्नि रोग-शोक , पाप-दुर्भाव, दुर्विचार और शाप तथा पराजय का नाश करता है । इसका अभिप्राय यह है कि जिसके हृदय में सत्त्व और विवेकरूपी अग्नि प्रज्वलित हो जाती है, उसके हृदय से दुर्भाव, दुर्विचार रोग-शोक के विचार नष्ट हो जाते हैं । वह व्यक्ति पराजित नहीं होता ---"देवम् अमीवचातनम् ।" (ऋग्वेदः--1.12.7) और "प्रत्युष्टं रक्षः प्रत्युष्टा अरातयः ।" (यजुर्वेदः--1.7)

(7.) यज्ञ के साथ अग्नि का सम्बन्ध :---
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यज्ञ के साथ अग्नि का अभिन्न सम्बन्ध है । उसे यज्ञ का "ऋत्विक्" कहा जाता है । वह "पुरोहित" और "होता" है । वह देवाताओं का आह्वान करता है और यज्ञ-भाग देवताओं तक पहुँचाता हैः---"अग्निमीऴे पुरोहितम् ।" (ऋग्वेदः--1.1.1)

(8.)** देवताओं के साथ अग्नि का सम्बन्ध :---**
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अग्नि के साथ अश्विनी और उषा रहते हैं । मानव शरीर में आत्मारूपी अग्नि अपनी ऊर्जाएँ फैलाए हुए हैं । अश्विनी प्राण-अपान वायु है । इससे ही मानव जीवन चलता है ।

इसी प्रकार उषाकाल में प्राणायाम, धारणा और ध्यान की क्रियाएँ की जाती हैं । अग्नि वायु का मित्र है । जब अग्नि प्रदीप्त होकर जलती है, तब वायु उसका साथ देता हैः---"आदस्य वातो अनु वाति शोचिः ।" (ऋग्वेदः--1.148.4)

(9.) मानव-जीवन के साथ अग्नि का सम्बन्ध :---
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अग्नि मनुष्य का रक्षक पिता हैः---"स नः पितेव सूनवेSग्ने सुपायनो भव ।" (ऋग्वेदः--1.1.9) उसे दमूनस्, गृहपति, विश्वपति कहा जाता है ।

(10.) पशुओं से तुलना :----
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यह आत्मारूपी अग्नि हृदय में प्रकट होती है । यह हृदय में हंस के समान निर्लेप भाव से रहती है । यह उषर्बुध (उषाकाल) में जागने वालों के हृदय में चेतना प्रदान करता हैः----"हंसो न सीदन्, क्रत्वा चेतिष्ठो, विशामुषर्भुत्, ऋतप्रजातः, विभुः ।" (ऋग्वेदः--1.65.5)

(11.) अग्नि अतिथि है :----
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अग्नि रूप आत्मा शरीर में अतिथि के तुल्य रहता है और सत्यनिष्ठा से रक्षा करता है । इसका अभिप्राय यह है कि जो व्यक्ति सत्य का आचरण, सत्यनिष्ठ और सत्यवादी हैं, वह उसकी रक्षा करता है । यह अतिथि के समान इस शरीर में रहता है, जब उसकी इच्छा होती है, प्रस्थान कर जाता हैः--"अतिथिं मानुषाणाम् ।" (ऋग्वेदः--1.127.8)

(12.) अग्नि अमृत है :---
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संसार नश्वर है । इसमें अग्नि ही अजर-अमर है । यह अग्नि ज्ञानी को अमृत प्रदान करती है । अग्नि रूप परमात्मा मानव हृदय में वाद्यमान अमृत तत्त्व है । जो साधक और ज्ञानी हैं, उन्हें इस अमृतत्व आत्मा का दर्शन होता हैः---"विश्वास्यामृत भोजन ।" (ऋग्वेदः---1.44.5)


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अग्नि सूक्तम
(१)
अग्नि-सूक्त" ऋग्वेद के प्रथम मण्डल का प्रथम सूक्त है ।
इसके ऋषि मधुच्छन्दा वैश्वामित्र है। यह विश्वामित्र के पुत्र है ।
इसके देवता "अग्नि" हैं ।
इसका छन्द "गायत्री-छन्द" है ।
इस सूक्त का स्वर "षड्जकृ" है ।
गायत्री-छन्द में आठ-आठ अक्षरों के तीन पाद (चरण) होते हैं । इस प्रकार यह छन्द चौबीस अक्षरों (स्वरों) का छन्द होता है ।

अग्नि-सूक्त में कुल नौ मन्त्र है ।

संख्या की दृष्टि से सम्पूर्ण वैदिक संस्कृत में इऩ्द्र (250) के बाद अग्नि (200) का ही स्थान है , किन्तु महत्ता की दृष्टि से अग्नि का सर्वप्रमुख स्थान है ।

स्वतन्त्र रूप से अग्नि का 200 सूक्तों में स्तवन किया गया है । सामूहिक रूप से सम्पूर्ण वैदिक साहित्य में अग्नि का 2483 सूक्तों में स्तवन किया गया है ।

अग्नि पृथ्वी स्थानीय देवता है । इनका पृथिवीलोक में प्रमुख स्थान है ।

अग्नि का स्वरूप

अग्नि शब्द "अगि गतौ" (भ्वादि. 5.2) धातु से बना है । गति के तीन अर्थ हैंः---ज्ञान, गमन और प्राप्ति ।

इस प्रकार विश्व में जहाँ भी ज्ञान, गति, ज्योति, प्रकाश, प्रगति और प्राप्ति है, वह सब अग्नि का ही प्रताप है ।

अग्नि में सभी दोवताओं का वास होता हैः---"अग्निर्वै सर्वा देवता ।" (ऐतरेय-ब्राह्मण---1.1, शतपथ---1.4.4.10) अर्थात् अग्नि के साथ सभी देवताओं का सम्बन्ध है । अग्नि सभी देवताओँ की आत्मा हैः---"अग्निर्वै सर्वेषां देवानाम् आत्मा ।" (शतपथ-ब्राह्मणः--14.3.2.5
आचार्य यास्क ने अग्नि की पाँच प्रकार से निरुक्ति दिखाई हैः---

(क) "अग्रणीर्भवतीति अग्निः ।" मनुष्य के सभी कार्यों में अग्नि अग्रणी होती है ।

(ख) "अयं यज्ञेषु प्रणीयते ।" यज्ञ में सर्वप्रथम अग्निदेव का ही आह्वान किया जाता है ।

(ग) "अङ्गं नयति सन्नममानः ।" अग्नि में पडने वाली सभी वस्तुओं को यह अपना अंग बना लेता है ।

(घ) "अक्नोपनो भवतीति स्थौलाष्ठीविः । न क्नोपयति न स्नेहयति ।" निरुक्तकार स्थौलाष्ठीवि का मानना है कि यह रूक्ष (शुष्क) करने वाली होती है, अतः इसे अग्नि कहते हैं ।

(ङ) "त्रिभ्य आख्यातेभ्यो जायते इति शाकपूणिः, इताद् अक्ताद् दग्धाद्वा नीतात् ।" शाकपूणि आचार्य का मानना है कि अग्नि शब्द इण्, अञ्जू या दह् और णीञ् धातु से बना है । इण् से "अ", अञ्जू से या दह् से "ग" और णीञ् से "नी" लेकर बना है (निरुक्तः---7.4.15)

कोई भी याग अग्नि के बिना सम्भव नहीं है । याग की तीन मुख्य अग्नियाँ होती हैंः---गार्हपत्य, आह्वनीय और दक्षिणाग्नि । "गार्हपत्याग्नि" सदैव प्रज्वलित रहती है । शेष दोनों अग्नियों को प्रज्वलित किए बिना याग नहीं हो सकता ।
फलतः अग्नि सभी देवताओं में प्रमुख है ।

अग्नि का स्वरूप भौतिक अग्नि के आधार पर व्याख्यायित किया गया है ।

(शेष आगे)@Sanatan


नवग्रह बिजात्मक दुर्लभ प्रयोग

नवग्रह मतलब 9 ग्रह जो है ....
1.सूर्य
2.चंद्र
3.भौम या मंगल
4.बूध
5.बृहस्पति
6.शुक्र
7.शनि
8.राहु
9.केतु
इस तरह से पूरे नो ग्रह होते है और कहते है व्यक्ति के दुख सुख और उनकी सफलता असफलता के लिए काफी हद तक संबंधित ग्रह जिम्मेदार होते है।
सो आप समझ ही सकते है कि ग्रहों का प्रभाव किस हद तक हम पे रहता है।
तो काफी लोग इस कड़ी में नवग्रह साधना खोजते है
वैसे तो काफी विधान है नवग्रह साधना के पर यहां मै आपको सबसे उपयुक्त सबसे आसान और दुर्लभ साधना
पोस्ट कर रहा हु सद्गुरुदेव निखिलं प्रदत
सामग्री
नवग्रह माला
नवग्रह यंत्र
आसन वैसे सफेद रहे तो बेहतर बाकी पिला आसान भी चलेगा
वस्त्र धोती और चादर
9 दिन की साधना है.....
नित्य एक माला गुरुजी ने कहा लेकिन आप 9 दिनों में 10 हजार जाप कर ले ।
सबसे पहले सुबह मे गुरु पूजन पश्चात सद्गुरुदेव से आशीर्वाद ले के इसे शुरू कर सकते है।

सामने प्राण प्रतिस्ठा युक्त नवग्रह यंत्र का पंचामृत से स्नान कर उसे एक प्लेट पे स्थापित करे।
निम्न मंत्रो का एक माला नवग्रह माला से जाप करे।
मंत्र है....
ॐ सम् चम् भम् बुम् ब्रम् शुम् शम् राम् केम् ॐ
यह नवग्रह के बिजातमक मंत्र है।
कैसे समझता हूं ....

सम्- यहां सूर्य ग्रह को रिप्रेजेंट कर रहा है ओर उसमे म् कार का प्रयोग किया गया है।

चम्- यहां चंद्र ग्रह को रिप्रेजेंट कर रहा है ओर इसमे म् कार का प्रयोग किया गया है....

भम् यहाँ भोम ग्रह यानी मंगल ग्रह को संबोधित किया गया है....

कई लोग यहां भम् की जगह मम् का उच्चारण करते है जो पूरी तरह से सही नही है...

कारण तंत्र ग्रंथो में मंगल को भोम ग्रह से संबोद्धित किया है इसलिए मम् के जगह भम् का उच्चारण सही है और उपयुक्त है....

बुम्- यहां बु बुध ग्रह को रिप्रेजेंट कर रहा है ओर इसमे म् कार का प्रयोग किया गया है।

ब्रम्- यहां ब्र बृहस्पति ग्रह को रिप्रेजेंट कर रहा है ओर इसमे म् कार का प्रयोग किया गया है।

शुम्- यहां शु शुक्र ग्रह को रिप्रेजेंट कर रहा है ओर इसमे म् कार का प्रयोग किया गया है।

शम्- यहाँ शनि ग्रह को रिप्रेजेंट कर रहा है ओर इसमे म् कार का प्रयोग किया गया है।

राम् यहां रा राहु ग्रह को रिप्रेजेंट कर रहा है ओर इसमे म् कार का प्रयोग किया गया है।

केम्- यहां के केतु ग्रह को रिप्रेजेंट कर रहा है ओर इसमे म् कार का प्रयोग किया गया है।

सो आप समझ ही गए होंगे कि नवग्रह का यह बिजतामक साधना है।
सो आपका कोई एक ग्रह कमजोर हो या अधिक ....
एक बार 9 दिन का अनुश्ठान पूर्ण करने के बाद।
आप नित्य दैनिक पूजन पश्चात सिर्फ 11 या 21 बार भी इस मंत्र का जाप करते है।
तो सभी ग्रह जो कमजोर भी है आपका वो सब जीवन मे आगे बढ़ने और लक्ष्य प्राप्ति मे आपके सहायक होंगे ....
सो नवग्रह के किसी विशेष मंत्रो के चक्कर मे ना पड के इस मंत्रो का 9 दिन एक बार अनुश्ठान कर इसे अपने दैनिक स्थान दे के इसका लाभ ले।
आशा है इस साधना से आप लाभ लेंगे।
@Sanatan

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