प्यारी शायरी


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चांद से चेहरे रंगीं आँचल चलते-फिरते साए हैं

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तेरे पैमाने में गर्दिश नहीं बाकी साकी
और तेरी बज्म से अब कोई ...चाहता है
परवीन शाकिर


चाहता हूं मैं मुनीर इस उमर के अंजाम पर

एक ऐसी जिंदगी जो इस तरह मुश्किल न हो

मुनीर नियाज़ी


तुमको देखा तो __यह ख़्याल आया!
जिंदगी धूप ___तुम घना साया!!


जो मुजरिम हैं हमारे वो हमीं से
सबूत बे गुनाही चाहते हैं
साकी अमरोही


सारी दुनिया के गम हमारे है

और सितम ये कि हम तुम्हारे है l


तुम्हारे शहर का मौसम बड़ा सुहाना लगे
मैं एक शाम चुरा लूँ अगर बुरा न लगे

तुम्हारे बस में अगर हो तो भूल जाओ मुझे
तुम्हें भुलाने में शायद मुझे ज़माना लगे

जो डूबना है तो इतने सुकून से डूबो
कि आस-पास की लहरों को भी पता न लगे

वो फूल जो मिरे दामन से हो गए मंसूब
ख़ुदा करे उन्हें बाज़ार की हवा न लगे

न जाने क्या है किसी की उदास आँखों में
वो मुँह छुपा के भी जाए तो बेवफ़ा न लगे

तू इस तरह से मिरे साथ बेवफ़ाई कर
कि तेरे बा'द मुझे कोई बेवफ़ा न लगे

तुम आँख मूँद के पी जाओ ज़िंदगी 'क़ैसर'
कि एक घूँट में मुमकिन है बद-मज़ा न लगे

क़ैसर-उल जाफ़री


तुम्हारी खामुशी के लफ़्ज़ पर था शोर शर्मिंदा,

तुम्हारे लहजे की सादा-ज़बानी याद आएगी..।


करते हैं अहले ज़र ही दिसंबर पे शायरी

कटती है सर्द रातें कैसे ये मुफलिस से पूछिए.....


कितने हमदर्द मिले, दोस्त मिले, यार मिले
सब उभरते हुए सूरज के परस्तार मिले
जिंदगी तूं हमें बाजार में क्यों ले आई
हम तो यूसुफ भी नहीं कोई खरीदार मिले


यह एक बाज़ार है,
जहाँ बिकते हैं फैसले।
जहाँ बिकते हैं ईमान,
जहाँ रोज दम तोङती है
किसी न किसी की जमीर।
हरे कागजों के नीचे दबकर।
यह अदालत है, जरा संभलकर।

जहाँ खर्च होती है सिर्फ उम्मीद
अगर खर्च करने को कुछ ना हो।
जहाँ मरोङी जाती है सबूतों की गर्दन,
कुछ रसूखदारों के इशारे पाकर।
यह अदालत है, जरा संभलकर।

जहाँ चरते हैं दीमक आपकी बेगुनाही पर,
जहाँ सजती हैं महफ़िल झूठी गवाही पर,
जहाँ जरूरी नहीं कि न्याय भी मिले मरकर
यह अदालत है, जरा संभलकर... जरा संभलकर।


मेरे हमदम कहां हो तुम तुम्हें हम याद करते हैं
पलट कर फिर से आओ न तुम्हारी राह तकते हैं

तुम्हारी याद में हालत हमारी अब हुई ऐसी
हमारे बहते आंसू भी तुम्हारा नाम लिखते हैं

मेरा मासूम सा ये दिल तड़पता है मचलता है
के जब इस दिल की तख्ती पर तुम्हारा नाम लिखते हैं

ये आँखें नम हो जाती है फलक भी थम सा जाता है
मोहब्बत की किताबें खोल कर हम जब भी पढ़ते हैं

जुलैखा की तड़प तुम हो न यूसुफ सा हसीं हूं मैं
तुम्हें पाने की खातिर फिर भी हम रब से झगड़ते हैं

न जाने क्यों हमारे साथ ये हर बार होता है
जिन्हें दिल में बसाते हैं वही दिल तोड़ जाते हैं

बहुत बेहाल है रुद रुद जरा सा हाल पूछो तुम
तुम्हारी याद में हर शब गजल एक लिख के रोते हैं

हमदम: साथी,मित्र
तख्ती: लकड़ी से बना लिखने वाला
आंखें नम: आंख में आसूं

रुद रुद मुरादाबादी


मुर्शिद उस रूठे हुए शख़्स से ये कहना

है पछतावा मुझ को ख़ताओं का अपनी


नहीं ये फ़िक्र कि वो शख़्स बेवफ़ा होगा
जो मेरा हो न सका वो किसी का क्या होगा

ये सोच कर के त'आरुफ़ नहीं दिया अपना
ज़रूर तुम ने मिरे बारे में सुना होगा

ये जानते हैं कि सीने में उस के पत्थर है
मगर यक़ीन है पत्थर में दिल छुपा होगा

ज़बाँ पे लाता नहीं है कभी जो ज़िक्र-ए-‘इश्क़
ज़रूर 'इश्क़ में पागल कभी रहा होगा

समझ रहे थे मोहब्बत का सिलसिला जिस को
ख़बर नहीं थी कि वो एक हादिसा होगा

ये सोच कर तुझे हम याद करते रहते हैं
तुझे भुलाने का कोई तो रास्ता होगा

सपना मूलचंदानी


मैंने माँगी थी उजाले की फ़क़त एक किरन

तुमसे ये किसने कहा आग लगा दी जाए


शिद्दत-ए-एहसास-ए-तन्हाई जगाया मत करो
मुझ को इतने सारे लोगों से मिलाया मत करो

तुम हमारे हौसले की आख़िरी उम्मीद हो
तुम हमारे ज़ख़्म पर मरहम लगाया मत करो

आख़िरी लम्हात में क्या सोचने लगते हो तुम
जीत के नज़दीक आ कर हार जाया मत करो

एक आँसू भी बहुत है ब-हर-ए-ईसाल-ए-सवाब
हम ग़रीबों के लिए दरिया बहाया मत करो

लोग अफ़्साना बनाते हैं ज़रा सी बात का
तुम हमारे नाम पे नज़रें झुकाया मत करो

अबरार काशिफ़


लौटा दो मेरे दिल की किताब बिन पढ़े !!

तोहमत न लगाओ कि लिखावट खराब है.!!


इस तरह साबित हम अपनी बुज़दिली करने लगें
और कुछ न कर सके तो मुखबिरी करने लगें।

हो गए बर्बाद गंदी सोहबतों में बैठकर,
बेचकर घर-बार अपना मयकशी करने लगें।

इस सियासत ने जो कारोबार सारे खा लिए,
इसलिए हम भी किसी की नौकरी करने लगें।

कल बड़ा लुक़मा नहीं उतरा था जिनके हलक़ से,
आज ऐसे लोग भी बातें बड़ी करने लगें।

लोग माहिर हो गए यारो सियासी खेल के,
गिर गए औक़ात से नेतागिरी करने लगें।

भूल बैठे हैं बुज़ुर्गों की नसीहत किसलिए,
किसलिए माँ-बाप की हम बे अदबी करने लगें।

इससे बढ़कर और क्या देते वफ़ाओं का सबूत,
इश्क़ सच्चा था तभी तो शायरी करने लगें।

अनवर क़ुरैशी


अभी तो मैं जवान हूँ
हवा भी ख़ुश-गवार है
गुलों पे भी निखार है
तरन्नुम-ए-हज़ार है
बहार पुर-बहार है
कहाँ चला है साक़िया
इधर तो लौट इधर तो आ
अरे ये देखता है क्या
उठा सुबू सुबू उठा
सुबू उठा प्याला भर
प्याला भर के दे इधर
चमन की सम्त कर नज़र
समाँ तो देख बे-ख़बर
वो काली काली बदलियाँ
उफ़ुक़ पे हो गईं अयाँ
वो इक हुजूम-ए-मय-कशाँ
है सू-ए-मय-कदा रवाँ
ये क्या गुमाँ है बद-गुमाँ
समझ न मुझको ना-तवाँ
ख़याल-ए-ज़ोहद अभी कहाँ
अभी तो मैं जवान हूँ

इबादतों का ज़िक्र है
नजात की भी फ़िक्र है
जुनून है सवाब का
ख़याल है अज़ाब का
मगर सुनो तो शैख़ जी
अजीब शय हैं आप भी
भला शबाब-ओ-आशिक़ी
अलग हुए भी हैं कभी
हसीन जल्वा-रेज़ हों
अदाएँ फ़ित्ना-ख़ेज़ हों
हवाएँ इत्र-बेज़ हों
तो शौक़ क्यूँ न तेज़ हों
निगार-हा-ए-फ़ित्नागर
कोई इधर कोई उधर
उभारते हों ऐश पर
तो क्या करे कोई बशर
चलो जी क़िस्सा-मुख़्तसर
तुम्हारा नुक़्ता-ए-नज़र
दुरुस्त है तो हो मगर
अभी तो मैं जवान हूँ

ये गश्त कोहसार की
ये सैर जू-ए-बार की
ये बुलबुलों के चहचहे
ये गुल-रुख़ों के क़हक़हे
किसी से मेल हो गया
तो रंज-ओ-फ़िक्र खो गया
कभी जो बख़्त सो गया
ये हँस गया वो रो गया
ये इश्क़ की कहानियाँ
ये रस भरी जवानियाँ
उधर से मेहरबानियाँ
इधर से लन-तरानियाँ
ये आसमान ये ज़मीं
नज़ारा-हा-ए-दिल-नशीं
इन्हें हयात-आफ़रीं
भला मैं छोड़ दूँ यहीं
है मौत इस क़दर क़रीं
मुझे न आएगा यक़ीं
नहीं नहीं अभी नहीं
अभी तो मैं जवान हूँ

न ग़म कुशूद-ओ-बस्त का
बुलंद का न पस्त का
न बूद का, न हस्त का
न वादा-ए-अलस्त का
उम्मीद और यास गुम
हवास गुम क़यास गुम
नज़र से आस पास गुम
हमा-बजुज़ गिलास गुम
न मय में कुछ कमी रहे
क़दह से हमदमी रहे
नशिस्त ये जमी रहे
यही हमा-हामी रहे
वो राग छेड़ मुतरिबा
तरब-फ़ज़ा, अलम-रुबा
असर सदा-ए-साज़ का
जिगर में आग दे लगा
हर एक लब पे हो सदा
न हाथ रोक साक़िया
पिलाए जा पिलाए जा
अभी तो मैं जवान हूँ

© Hafeez Jalandhari


इंतज़ार तो नसीब में लिखा है मेरे
मुझें मालूम है

तू अगर मिला भी है तो बिछड़ने के लिए....!!


मुझको मेरे वजूद की हद तक न जानिए,

बेहद हूँ, बेहिसाब हूँ, बेइन्तहा हूँ मैं!🦅🦅

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