भारतीय कालगणना के अनुसार एक दिन और रात सूर्योदय से लेकर अगले दिन के सूर्योदय तक में पूर्ण होते हैं जबकि अंग्रेजी कालगणना के अनुसार रात के 12 बजे जबरन दिन बदल दिया जाता है, जबकि उस वक्त उस दिन की रात ही चल रही होती है। समय की यह धारणा पूर्णत: अवैज्ञानिक है।
टाइम जोन को समान समय क्षेत्र कहते हैं। दुनिया की घड़ियों के समय का केंद्र वर्तमान में ब्रिटेन का ग्रीनविच शहर है। यहीं से संपूर्ण दुनिया की घड़ियों का समय तय होता है। इंडियन स्टैंडर्ड टाइम भी वहीं से तय होता है। आज के जमाने में घड़ियां स्थानीय स्टैंडर्ड टाइम के अनुसार चलती हैं, उसी हिसाब से सारे काम होते हैं। लेकिन क्या ये जरूरी है कि हर देश में एक ही टाइम जोन हो?
19वीं शताब्दी में भारतीय शहरों में विक्रमादित्य के समय से चले आ रहे स्थानीय समय को सूर्य के मुताबिक तय किया जाता था लेकिन ब्रिटिश औपनिवेशिक काल में भारत में सबकुछ बदल गया। दरअसल, उस काल में रेलगाड़ियों का समय तय करने वालों ने यह परंपरा बदली। रेलवे नेटवर्क के विस्तार और औद्योगिक क्रांति ने इंटरनेशनल स्टैंडर्ड टाइम को जन्म दिया। साल 1884 में मेरिडियन कॉन्फ्रेंस में दुनिया को 24 टाइम जोनों में बांटा गया। उन्होंने दिन के 24 घंटे नियुक्त किए जिसे ग्रीनविच मीन टाइम (जीएमटी) के तौर पर जाना जाता है। बाद में इसे कोर्डिनेट यूनिवर्सल टाइम (यूटीसी) नाम दिया गया।
ब्रिटिश शासन के दौरान भारत दो जोनों में बंटा था लेकिन 1 सितंबर 1947 के दिन इंडियन स्टैंडर्ड टाइम (आईएसटी) जारी किया गया जिसके मुताबिक घड़ी 82.5 डिग्री पर एक वर्टिकल लाइन पर सेट कर दी गई, जो इलाहाबाद के पास के शंकरगढ़, मिर्जापुर से होकर गुजरता है। ये एक बेतुका फैसला था और साल-दर-साल सरकारों ने भी इसे सुधारने में कोई रुचि नहीं ली।
साल 1948 तक पूर्वी भारत में ‘कलकत्ता टाइम’ फॉलो किया जाता था। साल 1955 तक पश्चिमी भारत में ‘बंबई टाइम’ फॉलो किया जाता था। वर्तमान में दिल्ली टाइम फॉलो किया जाता है। इससे कई तरह की दिक्कतें पैदा होती हैं। भारत के उत्तर-पूर्व में जहां ब्रितानी चाय बागान चलाते थे, वहां ‘बागान टाइम’ फॉलो किया जाता था। ये आईएसटी से 1 घंटा आगे होता था और पश्चिमी तट के समय से 2 घंटे आगे। पूर्व से पश्चिम तक अमेरिका 4,800 किलोमीटर क्षेत्र में फैला है और वो 9 टाइम जोन का पालन करता है, वहीं भारत पूर्व से पश्चिम तक 3,000 किलोमीटर क्षेत्र में फैला है और कायदे से यहां भी कम से कम 2 या 3 टाइम जोन होने चाहिए। ऐसा करना भारत के लिए आर्थिक रूप से फायदेमंद हो सकता है।
उदाहरणार्थ, भारत के पूर्वोत्तर राज्यों में इंडियन स्टैंडर्ड टाइम का सीधा नुकसान दिखता है। वहां लोग सुबह 6 बजे तक नाश्ता करके तैयार मिलते हैं, लेकिन सरकारी दफ्तर या अदालतें 10 बजे से पहले नहीं खुलते, वहीं बंद होने का समय 4 या 5 बजे शाम का होता है, क्योंकि वहां सूर्य सबसे पहले उदित होता है और अस्त भी। वे तब उठ जाते हैं जबकि पश्चिम और मध्यभारत के लोग गहरी नींद में सोए रहते हैं। अब जब पूर्वोत्तर के लोग घड़ी के अनुसार ऑफिस पहुंचते हैं तो निश्चित ही घड़ी के अनुसार ही वे लौटेंगे यानी रोजाना अधिकतम 4 घंटे का नुकसान। ये व्यापार, अर्थव्यवस्था के साथ नागरिकों के लिए भी नुकसानदेह है, क्योंकि स्टैंडर्ड टाइम के अनुसार सुबह के 7 बजे पूर्वोत्तर के टाइम में 10 बजे का समय होता है।
मान लीजिए अगर हम पूर्वी, मध्य और पश्चिमी टाइम जोन में भारत के हिस्से बांट लें- भारत का पूर्वी हिस्सा जहां सबसे पहले दिन की रोशनी पड़ती है, वहां काम सबसे पहले शुरू हो, फिर मध्य और आखिर में पश्चिम भारत में काम शुरू हो तो समूचे भारत में सक्रिय कार्य करने के घंटे बढ़ जाएंगे। ऐसा करने से ये सिर्फ समय का माप न रहकर देश के विकास को गति देने वाला एक औजार बन जाएगा।
प्राचीनकाल में ऐसी थी व्यवस्था : भारत में विक्रमादित्य के शासनकाल में संपूर्ण भारत का समय उज्जैन से तय होता था। यह समय सूर्योदय से लेकर अगले दिन के सूर्योदय तक एक दिन-रात पर आधारित था और उसे एक दिवस माना जाता था। ग्रीक, फारसी, अरबी और रोमन लोगों ने भारतीय कालगणना से प्रेरणा लेकर ही अपने अपने यहां के समय को जानने के लिए अपने तरीके की वेधशालाएं बनाई थीं। रोमन कैलेंडर भी भारत के विक्रमादित्य कैलेंडर से ही प्रेरित था।
उज्जैन स्थित ज्योतिर्लिंग को 'महाकाल' इसीलिए कहा जाता था, क्योंकि वहीं से दुनियाभर का समय तय होता था। खगोलशास्त्रियों के अनुसार उज्जैन की भौगोलिक स्थिति विशिष्ट है। यह नगरी पृथ्वी और आकाश की सापेक्षता में ठीक मध्य में स्थित है इसलिए इसे पूर्व से ‘ग्रीनविच’ के रूप में भी जाना जाता है।
प्राचीन भारत की ‘ग्रीनविच’ यह नगरी देश के मानचित्र में 23.9 अंश उत्तर अक्षांश एवं 74.75 अंश पूर्व रेखांश पर समुद्र सतह से लगभग 1658 फीट ऊंचाई पर बसी है। वर्तमान में ग्रीनविच
टाइम जोन को समान समय क्षेत्र कहते हैं। दुनिया की घड़ियों के समय का केंद्र वर्तमान में ब्रिटेन का ग्रीनविच शहर है। यहीं से संपूर्ण दुनिया की घड़ियों का समय तय होता है। इंडियन स्टैंडर्ड टाइम भी वहीं से तय होता है। आज के जमाने में घड़ियां स्थानीय स्टैंडर्ड टाइम के अनुसार चलती हैं, उसी हिसाब से सारे काम होते हैं। लेकिन क्या ये जरूरी है कि हर देश में एक ही टाइम जोन हो?
19वीं शताब्दी में भारतीय शहरों में विक्रमादित्य के समय से चले आ रहे स्थानीय समय को सूर्य के मुताबिक तय किया जाता था लेकिन ब्रिटिश औपनिवेशिक काल में भारत में सबकुछ बदल गया। दरअसल, उस काल में रेलगाड़ियों का समय तय करने वालों ने यह परंपरा बदली। रेलवे नेटवर्क के विस्तार और औद्योगिक क्रांति ने इंटरनेशनल स्टैंडर्ड टाइम को जन्म दिया। साल 1884 में मेरिडियन कॉन्फ्रेंस में दुनिया को 24 टाइम जोनों में बांटा गया। उन्होंने दिन के 24 घंटे नियुक्त किए जिसे ग्रीनविच मीन टाइम (जीएमटी) के तौर पर जाना जाता है। बाद में इसे कोर्डिनेट यूनिवर्सल टाइम (यूटीसी) नाम दिया गया।
ब्रिटिश शासन के दौरान भारत दो जोनों में बंटा था लेकिन 1 सितंबर 1947 के दिन इंडियन स्टैंडर्ड टाइम (आईएसटी) जारी किया गया जिसके मुताबिक घड़ी 82.5 डिग्री पर एक वर्टिकल लाइन पर सेट कर दी गई, जो इलाहाबाद के पास के शंकरगढ़, मिर्जापुर से होकर गुजरता है। ये एक बेतुका फैसला था और साल-दर-साल सरकारों ने भी इसे सुधारने में कोई रुचि नहीं ली।
साल 1948 तक पूर्वी भारत में ‘कलकत्ता टाइम’ फॉलो किया जाता था। साल 1955 तक पश्चिमी भारत में ‘बंबई टाइम’ फॉलो किया जाता था। वर्तमान में दिल्ली टाइम फॉलो किया जाता है। इससे कई तरह की दिक्कतें पैदा होती हैं। भारत के उत्तर-पूर्व में जहां ब्रितानी चाय बागान चलाते थे, वहां ‘बागान टाइम’ फॉलो किया जाता था। ये आईएसटी से 1 घंटा आगे होता था और पश्चिमी तट के समय से 2 घंटे आगे। पूर्व से पश्चिम तक अमेरिका 4,800 किलोमीटर क्षेत्र में फैला है और वो 9 टाइम जोन का पालन करता है, वहीं भारत पूर्व से पश्चिम तक 3,000 किलोमीटर क्षेत्र में फैला है और कायदे से यहां भी कम से कम 2 या 3 टाइम जोन होने चाहिए। ऐसा करना भारत के लिए आर्थिक रूप से फायदेमंद हो सकता है।
उदाहरणार्थ, भारत के पूर्वोत्तर राज्यों में इंडियन स्टैंडर्ड टाइम का सीधा नुकसान दिखता है। वहां लोग सुबह 6 बजे तक नाश्ता करके तैयार मिलते हैं, लेकिन सरकारी दफ्तर या अदालतें 10 बजे से पहले नहीं खुलते, वहीं बंद होने का समय 4 या 5 बजे शाम का होता है, क्योंकि वहां सूर्य सबसे पहले उदित होता है और अस्त भी। वे तब उठ जाते हैं जबकि पश्चिम और मध्यभारत के लोग गहरी नींद में सोए रहते हैं। अब जब पूर्वोत्तर के लोग घड़ी के अनुसार ऑफिस पहुंचते हैं तो निश्चित ही घड़ी के अनुसार ही वे लौटेंगे यानी रोजाना अधिकतम 4 घंटे का नुकसान। ये व्यापार, अर्थव्यवस्था के साथ नागरिकों के लिए भी नुकसानदेह है, क्योंकि स्टैंडर्ड टाइम के अनुसार सुबह के 7 बजे पूर्वोत्तर के टाइम में 10 बजे का समय होता है।
मान लीजिए अगर हम पूर्वी, मध्य और पश्चिमी टाइम जोन में भारत के हिस्से बांट लें- भारत का पूर्वी हिस्सा जहां सबसे पहले दिन की रोशनी पड़ती है, वहां काम सबसे पहले शुरू हो, फिर मध्य और आखिर में पश्चिम भारत में काम शुरू हो तो समूचे भारत में सक्रिय कार्य करने के घंटे बढ़ जाएंगे। ऐसा करने से ये सिर्फ समय का माप न रहकर देश के विकास को गति देने वाला एक औजार बन जाएगा।
प्राचीनकाल में ऐसी थी व्यवस्था : भारत में विक्रमादित्य के शासनकाल में संपूर्ण भारत का समय उज्जैन से तय होता था। यह समय सूर्योदय से लेकर अगले दिन के सूर्योदय तक एक दिन-रात पर आधारित था और उसे एक दिवस माना जाता था। ग्रीक, फारसी, अरबी और रोमन लोगों ने भारतीय कालगणना से प्रेरणा लेकर ही अपने अपने यहां के समय को जानने के लिए अपने तरीके की वेधशालाएं बनाई थीं। रोमन कैलेंडर भी भारत के विक्रमादित्य कैलेंडर से ही प्रेरित था।
उज्जैन स्थित ज्योतिर्लिंग को 'महाकाल' इसीलिए कहा जाता था, क्योंकि वहीं से दुनियाभर का समय तय होता था। खगोलशास्त्रियों के अनुसार उज्जैन की भौगोलिक स्थिति विशिष्ट है। यह नगरी पृथ्वी और आकाश की सापेक्षता में ठीक मध्य में स्थित है इसलिए इसे पूर्व से ‘ग्रीनविच’ के रूप में भी जाना जाता है।
प्राचीन भारत की ‘ग्रीनविच’ यह नगरी देश के मानचित्र में 23.9 अंश उत्तर अक्षांश एवं 74.75 अंश पूर्व रेखांश पर समुद्र सतह से लगभग 1658 फीट ऊंचाई पर बसी है। वर्तमान में ग्रीनविच