Sanatan Dharm


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Репост из: शिवोऽहम् ॥
😁


*7th chapter, not 4th 🙏




Репост из: शिवोऽहम् ॥
🕉🕉🕉🕉🕉


Репост из: शिवोऽहम् ॥
❤🕉


Репост из: शिवोऽहम् ॥
🕉🕉🕉🕉🕉


UP :- Prayagraj

Nishadraj Smarak in Shringverpur Dham is nearing completion

A 51 ft high brass statue of Nishadraj with Prabhu Shri Ram is constructed on the banks of Ganga


September 3 declared as 'Sanatana Dharma Day' by 🇺🇲US city.

The Mayor of Louisville in the USA's Kentucky on Tuesday declared September 3 as 'Sanatana Dharma Day'. The official proclamation on the subject was reportedly read by the city's Deputy Mayor at a Hindu temple.


Репост из: शिवोऽहम् ॥
❤🕉


VEDANTA

Vedanta or Uttara Mīmāmsā is one of the six darshanika schools of Sanatana Dharma. Primarily the word Vedanta stood for Upanishads; afterwords, its scope widened to include all thoughts developed out of the Upanishads. Vedanta, its denotation as understood and accepted by its major schools, refers to various philosophical traditions based on the three basic texts of Hindu philosophy, namely the Principal Upanishads, the Brahma Sutras and the Bhagavad Gita.

Vedanta adopted ideas from other schools of Hindu Dharma such as Yoga and Nyaya, and, over time, became the most prominent of the orthodox schools of Hindu Dharma, influencing the diverse traditions within it. There are at least ten schools of Vedanta, of which Advaita Vedanta, Vishishtadvaita, Dvaita and Bhedabheda are the best known. Vedanta is also called Uttara Mimāmsā, or the 'latter enquiry' or 'higher enquiry', and is often paired with Purva Mīmāmsā, the 'former enquiry' or 'primary enquiry'. Purva Mimamsa and also Karma Mimamsa, usually simply called Mimamsa, deals with explanations of the Karma-kanda or rituals part of the Vedic mantras (in the Samhita portion of the Vedas) and Brahmanas, while Vedanta deals with the Upanishads or the Jnana-kanda of the Vedas.

Prasthantrayi: The Three Basic Texts

In the current view, the Upanishads, The Bhagavadgita and the Vedanta Sutra constitute the triple basis of Vedanta. All schools of the vedanta propound their philosophy by interpreting these texts, called the Prasthanatrayi, literally, three Sources

1. The Upanishads, known as Upadesha prasthana (injunctive texts), and the Śruti prasthāna (the starting point of revelation).

2. The Vedanta Sutra or Brahma Sutras, known as Nyaya prasthana or Yukti prasthana (logical text).

3. The Bhagavad Gita, a part of the Mahabharata, is known as Sadhana prasthana (practical text), and the Smriti prasthāna (the starting point of remembered tradition).

Vedanta Philosophy

The schools of Vedanta seek to answer questions about the relation between atman and Brahman, and the relation between Brahman and the world.

The schools of Vedanta are named after the relation they see between atman and Brahman:

• According to Advaita Vedanta, there is no difference.

• According to Dvaita the jivātman is totally different from Brahman. Even though he is similar to brahman, he is not identical.

• According to Vishishtadvaita, the jīvātman is a part of Brahman, and hence is similar, but not identical.

• According to Shuddhadvaita, the jivātman and Brahman are like sparks and fire, Jagat is real and the jivātman is clouded by nescience (avidya) due to Maya.

Swami Sivananda gives the following explanation:

Madhva said: "Man is the servant of God," and established his Dvaita philosophy. Ramanuja said: "Man is a ray or spark of God," and established his Visishtadvaita philosophy. Sankara said: "Man is identical with Brahman or the Eternal Soul," and established his Kevala Advaita philosophy.

Brahman is the key metaphysical concept in various schools of Hindu philosophy. It is the theme in its diverse discussions to the two central questions of metaphysics: what is ultimately real, and are there principles applying to everything that is real? Brahman is the ultimate "eternally, constant" reality, while the observed universe is different kind of reality but one which is "temporary, changing" Māyā in various orthodox Hindu schools. Māyā pre- exists and co-exists with Brahman - the Ultimate Reality, The Highest Universal, the Cosmic Principles.

Shankaracharya, Ramanujacharya, and Madhvacharya, have composed extensive commentaries not only on the Upanishads and Brahma Sutras, but also on the Bhagavad Gita. While it is not typically thought of as a purely Vedantic text, with its syncretism of Samkhya, Yoga, and Upanishadic thought, the Bhagavad Gita has played a strong role in Vedantic thought.


अधरं मधुरं वदनं मधुरं
नयनं मधुरं हसितं मधुरम् ।
हृदयं मधुरं गमनं मधुरं
मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥ ॥

वचनं मधुरं चरितं मधुरं
वसनं मधुरं वलितं मधुरम् ।
चलितं मधुरं भ्रमितं मधुरं
मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥ ॥

वेणुर्मधुरो रेणुर्मधुरः
पाणिर्मधुरः पादौ मधुरौ ।
नृत्यं मधुरं सख्यं मधुरं
मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥ ॥

गीतं मधुरं पीतं मधुरं
भुक्तं मधुरं सुप्तं मधुरम् ।
रूपं मधुरं तिलकं मधुरं
मधुराधिपतेरखिलं मधुरम् ॥

जन्माष्टमी पर्व की हार्दिक शुभकामनायें 🙏


काट लिया था। पूरे सोलह वर्षों से वह एक काठ की प्रतिमा को कृष्ण का रूप देकर कृष्ण मानते आई थी। उसी काष्ठ प्रतिमा को नहलाती, शृंगार करती, झूले पर झुलाती। उसकी ममता ने तो सोहल वर्ष से कृष्ण को बालक रूप में ही निरूपित किया हुआ था, परन्तु क्या वह मेघवर्णी बालक, अब तक बालक ही रहा होगा। माता के आतुर नेत्र द्वार पर चिपक गए थे।

सहसा गगनभेदी स्वर हुआ। गोपों की मंडली ने समस्त मथुरा को बता दिया कि उनका गोपेश्वर आ रहा है। लंबा-चौड़ा, परन्तु कमनीय। विचित्र भूषा थी उस युवक की। ग्रीवा में तुलसी की माला और माथे पर मोरपंख। हाथ में कोई अस्त्र या शस्त्र नहीं, अपितु गोपों की भांति बाँस की मात्र एक छड़ी। कृष्ण अपने भाई राम के निकट खड़ा हो गया। जैसे कोई चित्र पूरा हो गया हो। पीत वर्ण के राम और नील वर्ण के कृष्ण। नीलाम्बर राम, पीताम्बर कृष्ण।

देवकी उन दोनों को देखती ही रह गई। न जाने कितने क्षण बीत गए। फिर जाने क्या हुआ, कि एक मल्ल राम से और दूसरा मल्ल कृष्ण से भिड़ने के लिए आगे बढ़े।

मुष्टिक और चाणूर, राम और कृष्ण। मुष्टिक और राम बाहुयुद्ध करने लगे। मुष्टिक जो अपने धक्के से हाथी को भी गिरा देता था, वह राम को एक पग भी पीछे धकेल न सका। उसने राम के पंजों से स्वयं को मुक्त किया और उस पर मुष्टि प्रहार करने लगा। जैसे कोई व्यक्ति किसी सुकोमल बालक के कोमल प्रहारों को सहता रहता है, राम भी सहता रहा। और एकाएक ही उसने अपने से एक हाथ ऊँचे मुष्टिक को अपने हाथों पर उठा लिया और जोर से पटक दिया। उसने फिर उसके पैर पकड़े और बालकों के खेल की तरह मुष्टिक को हवा में घुमाने लगा, बीच-बीच में वह उसका सिर किसी न किसी वस्तु से भिड़ा देता। कुछ ही समय में मुष्टिक मृत्यु को प्राप्त हो गया।

इधर कृष्ण की शैली ही विचित्र थी। वह कमनीय युवक अपने लोचदार शरीर का भरपूर प्रयोग कर रहा था। चाणूर के लिए यह नितांत विचित्र बात थी कि प्रतिद्वंद्वी उस पर प्रहार ही नहीं कर रहा, न प्रतिउत्तर दे रहा है, अपितु मात्र स्वयं को बचा रहा है। इतनी देर हो गई, चाणूर की सांस फूल गई, पर वह अब तक कृष्ण को सही से छू भी नहीं पाया था। चाणूर के फेफड़े द्रुतगति से चल रहे थे। अब उसमें तनिक भी शक्ति नहीं बची थी। अंततः वह एक स्थान पर कीलित सा होकर कृष्ण की ओर हाथ भर हिला रहा था, जैसे ऐसा करने से कृष्ण उसकी पकड़ में आ जायेगा। अंततः कृष्ण मुस्कुराते हुए उसके सम्मुख खड़े हुए। चाणूर ने अवसर जान अपनी मुष्टि का भरपूर प्रहार किया। ऊपर से देख रही देवकी का हृदय भयभीत हो गया। उसके कोमल से पुत्र पर चाणूर का प्रहार!

परन्तु कृष्ण तो उसी प्रकार मुस्कुरा रहा था। फिर एकाएक ही उसने अपनी मुष्टि का प्रहार किया, और लोगों को सहसा विश्वास न हुआ कि चाणूर का सिर फट गया था।

गोपों ने पुनः उल्लासपूर्ण चीत्कार किया। कृष्ण की सावधान दृष्टि ने देखा कि कंस ने क्रोधित होकर कोई मूक आदेश दिया है, और उसके मागधी सैनिक क्रीड़ास्थल को घेरने लगे हैं। बस कुछ ही पल की बात थी कि कंस के सैनिक राम, कृष्ण और उनके मित्रों को घेर लेते, और सामूहिक हत्याकांड का आयोजन हो जाता।

कृष्ण ने क्षण भर में निर्णय कर लिया। गाँव का वह छोरा, जैसे पेड़ों पर पलक मारते चढ़ जाता था, एक के बाद एक दीर्घाओं को पार करता चला गया, और लोगों के देखते ही देखते दीर्घाओं के कई तलों को पार करते हुए कंस के सम्मुख खड़ा हो गया।

कंस कुछ समझ पाता, उससे पूर्व ही कृष्ण ने उसकी कमर से खड्ग निकाल लिया। निकट खड़े अंगरक्षकों के कुछ करने से पहले ही, कृष्ण ने कंस के लंबे केशों को अपने बाएँ हाथ में पकड़कर दाहिने हाथ से बलिपशु की भांति उसकी ग्रीवा उतार दी। समस्त जनता मूढ़ों की भांति देखती रह गई। वह तो जब कृष्ण ने कंस के शीश को अपने हाथ में पकड़कर ऊँचा उठाया, जनता पागल हो उठी। तारणहार आया, भविष्यवाणी सत्य हुई, शोर मचाती जनता कृष्ण की ओर लपकने लगी।

क्षत्राणी देवकी यह दृश्य देख आह्लाद से मूर्छित हो गई। वह देख नहीं पाई कि उसका बाल गोपाल किस प्रकार एक शक्तिशाली पुरुष के रूप में जनता के समुद्र को चीरता हुआ उसके निकट आ खड़ा हुआ था। देवकी की मूर्छा टूटी, उसने देखा जनार्दन उसके पैरों में झुके हुए थे, कंस के रक्त से उसके चरण धो रहे थे, और वर्षों के विलंब के लिए क्षमा मांग रहे थे।

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Courtsey- 360°


उस स्त्री के लिए आज की भोर कुछ विचित्र, कुछ नवीन, और आशंकाओं से युक्त थी।

जब तक उसका विवाह नहीं हुआ था, वह स्वतंत्र थी। विवाह होते ही वह बंदिनी हो गई। और विडंबना यह कि उसे उसके पति ने नहीं, अपितु उसके भाई ने बंदी बनाया था। आज उसे कुल पच्चीस वर्ष बाद बाहर निकलने की अनुमति मिली थी। उसके भाई, मथुराधीश कंस ने विजयोत्सव का आयोजन किया था। कंस अपने श्वसुर मगधराज सम्राट जरासंध का दाहिना हाथ था। जरासंध के गुट में विदर्भ के राजा भीष्मक, और चेदि के राजा दामघोष भी थे, परन्तु कंस का स्थान इन दोनों से कहीं ऊपर था। भीष्मक पुत्र रुक्मी और दामघोष पुत्र शिशुपाल कंस को अपना आदर्श मानते थे। जरांसन्ध की आज्ञा से, कंस देश-विदेश में जययात्राएं करता रहता था, परन्तु यह प्रथम अवसर था जब वह विजयोत्सव भी मना रहा था। उस स्त्री ने सुना था कि कोई धनुषयज्ञ का आयोजन भी किया जाने वाला था परन्तु पिछले सप्ताह किसी दुष्ट ग्वाले ने समस्त जनता के सम्मुख उस धनुष को तोड़ दिया था। अवश्य ही उसके क्रूर भाई ने उस ग्वाले की हत्या करवा दी होगी।

अपने पिता, शूर नेता देवक के नाम पर उसे देवकी कहा जाता था। दासियों की सहायता से उसे उसके निर्दिष्ट आसन पर बिठा दिया गया। अभी तक आसपास के वातावरण से निर्लिप्त देवकी की तन्द्रा उसके चरणों पर पड़े करस्पर्शों से टूटी। कुछ नवयुवक उसके पैर छू रहे थे। देवकी कुछ न समझने के भाव से उनकी ओर देख ही रही थी कि उसके कंधे पर एक नारी ने अपनी हथेली रखते हुए कहा, "देवकी, यह हमारे पुत्र हैं, हमारे पति वसुदेव के पुत्र। गद, सारण और सुभद्र।" देवकी अब भी असमंजस में थी। उसके नेत्रों में उस नारी के प्रति भी कोई पहचान के चिह्न नहीं दिख रहे थे। बलवान देहयष्टि की उस नारी ने प्रेम से देवकी का चुबक उठाकर कहा, "मुझे भी नहीं पहचाना देवकी? कैसे पहचानोगी! तुम्हारे और आर्यपुत्र के विवाह के अवसर पर हम तो तुम्हारी राह ही देखते रह गए, और दुष्ट कंस ने तुम्हें मार्ग में ही बंदी बना लिया था। मैं तुम्हारी सपत्नी, आर्यपुत्र वसुदेव की पत्नी रोहिणी हूँ।"

देवकी ने झट से अपनी धोती का छोर अपने दाँतों तले दबाया और रोहिणी के चरणों में झुकने को हुई, कि रोहिणी ने उसे अपने गले से लगा लिया। फिर रोहिणी बोली, "बहन, तेरा-मेरा नाता कुछ विचित्र ही प्रकार का है। यद्यपि पति के पुत्र सभी पत्नियों के साझे होते हैं, जैसे ये गद है, सुभद्र है, परन्तु तेरे गर्भ में अंकुरित बीज का पोषण मेरे गर्भ में हुआ है। तुझे पता है, तेरे सातवें पुत्र राम की माता हूँ मैं?"

जिस स्त्री ने अपने जीवन के पच्चीस वर्ष, पच्चीस वैवाहिक वर्ष, सन्तानमती होने के पश्चात भी संतानहीन होकर व्यतीत किए हों, अनुमान लगाना कठिन है कि यह सब सुनकर उसकी मनःस्थिति कैसी हो रही होगी। देवकी रोहिणी के गले लगकर रोने लगी। जैसे कोई माता अपनी पुत्री को चुप कराती है, वैसे रोहिणी ने देवकी को चुप कराया और कहा, "चुप कर बहन। अब तेरे दुख के दिन समाप्त हुए। मेरा अंतर्मन जानता है कि आज कुछ विशेष होने वाला है। तेरे पुत्र राम और कृष्ण मथुरा में हैं। वे शीघ्र ही यहां उपस्थित होंगे।"

'यहां उपस्थित होंगे', यह सुनकर देवकी ने अपने चारों ओर देखा। अब तक तो वह जैसे खुले नेत्रों से निद्रामग्न थी। अब उसके नेत्र खुले। उसने देखा कि वह एक गोलाकार क्रीड़ास्थल के चारो ओर बनी विशाल संरचना में स्थित एक आसन पर बैठी है। सहस्त्रों दर्शकों से युक्त उस संरचना में देवकी के आसन के ठीक सामने मथुराधीश कंस अपने मागधी अंगरक्षकों के साथ बैठा हुआ है। नीचे क्रीड़ास्थल पर अनेक मल्ल अपनी कला का प्रदर्शन कर रहे हैं। अचानक ही प्रवेशद्वार पर शोर सा उठा। रोहिणी ने देवकी के कंधे झंकझोरते हुए हुए कहा, "देख बहन, वह हमारा राम चला आ रहा है!"

देवकी ने देखा, एक अत्यंत लम्बा-चौड़ा बलिष्ठ युवा जिसके चेहरे पर अभी मूंछों ने आना आरम्भ ही किया है, एक हाथ में ठोस इस्पात की बनी गदा लिए तनिक क्रोधित भाव से सबके सम्मुख उपस्थित हो गया। नीलाम्बर धारी उस युवक ने चारों ओर अपनी सिंहदृष्टि फिराई। दर्शकदीर्घा में उसने गोपों के बीच बैठे नन्द को प्रणाम किया, विशिष्टि पुरुषों की दीर्घा में उसने अक्रूर को पहचाना और प्रणाम किया। स्त्रियों की दीर्घा में उसने अपनी माता रोहिणी को प्रणाम किया। उसने देखा कि उसकी माता अपने निकट खड़ी एक अतिशय दुर्बल स्त्री को प्रणाम करने का संकेत दे रही हैं। राम ने उसे भी प्रणाम किया और अनन्तर अपनी क्रुद्धदृष्टि कंस पर स्थिर कर ली।

देवकी की अवस्था विचित्र हो गई थी। राम से पहले छह नवजात पुत्र उसने अपने हाथों में उठाए थे, और उन्हें मरते देखा था, आँठवें पुत्र को भी उसने देखा था, और स्वयं से दूर कर दिया था। परन्तु इस पुत्र को तो वह जन भी नहीं पाई थी। क्या वह वास्तव में इसकी जननी थी भी? राम के बाद निश्चित ही कृष्ण भी आएगा। वह कृष्ण जिसे देखने की आशा में उसने अपने नारकीय जीवन को भी सहर्ष




अनुकूल ज्योति की घड़ी न मेरी होगी,
मैं आऊँगा जब रात अन्धेरी होगी।

~ दिनकर


Репост из: शिवोऽहम् ॥
उत्तरं यत् समुद्रस्य हिमाद्रेश्चैव दक्षिणम् |
वर्षं तद् भारतं नाम भारती यत्र संततिः ||

The country that lies north of the ocean and south of the Himalayas is called BHĀRATAM, and their children are called Bhārati. [ Source : Vishnu Puran - 2.3.1 ]

जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी ॥

भारत माता की जय 🇮🇳❤🕉


Navy allows Kurta, Pyjama or Trouser with Waist Coat for Messes & functions.

This is part of its initiatives to get rid of colonial practices which allow western dresses in messes but say NO to Indian attire.


Mahabharat has mentioned ‘Sanatana Dharma’: 157 times.
Ramayana has mentioned it: 8 times
Manusmriti has mentioned it: 7 times
Bhagavata Puran has mentioned it: 8 times 
Kurma Puran has mentioned it: 10 times.
Garuda Puran has mentioned it : 4 times.
Agnipurāṇa has mentioned it: 2 times
Bṛhaspatismṛti has mentioned it: 8 times
Śivapurāṇa has mentioned it: 2 times
Vāmanapurāṇa has mentioned it: 2 times
Parāśarasmṛti has mentioned it: 2 times
Mahāsubhāṣitasaṁgraha has mentioned it 5 times

But according to Fake Historian cum Aurangzeb's Modern Daughter Audrey Truschke, "Sanatana Dharma" was coined in the 19th century during British colonialism.


Found in the ruins of stupa built to honour Buddhist monk Yosamitra, at the Ming-oi of Kumtura, the Manuscript was acquired 1890, by Capt Hamilton Bower, there on a mission to track down the killer of a Scottish trader.


A recipe for an oil to remove wrinkles & grey hair, From the oldest surviving Manuscript of an Ayurvedic text, the Bower manuscript Found at the Ming-oi of Kumtura, Kuchar on the old SilkRoad, Xinjiang, China
Sanskrit, late Brahmi script, on birch bark, c 500-550.

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