उस स्त्री के लिए आज की भोर कुछ विचित्र, कुछ नवीन, और आशंकाओं से युक्त थी।
जब तक उसका विवाह नहीं हुआ था, वह स्वतंत्र थी। विवाह होते ही वह बंदिनी हो गई। और विडंबना यह कि उसे उसके पति ने नहीं, अपितु उसके भाई ने बंदी बनाया था। आज उसे कुल पच्चीस वर्ष बाद बाहर निकलने की अनुमति मिली थी। उसके भाई, मथुराधीश कंस ने विजयोत्सव का आयोजन किया था। कंस अपने श्वसुर मगधराज सम्राट जरासंध का दाहिना हाथ था। जरासंध के गुट में विदर्भ के राजा भीष्मक, और चेदि के राजा दामघोष भी थे, परन्तु कंस का स्थान इन दोनों से कहीं ऊपर था। भीष्मक पुत्र रुक्मी और दामघोष पुत्र शिशुपाल कंस को अपना आदर्श मानते थे। जरांसन्ध की आज्ञा से, कंस देश-विदेश में जययात्राएं करता रहता था, परन्तु यह प्रथम अवसर था जब वह विजयोत्सव भी मना रहा था। उस स्त्री ने सुना था कि कोई धनुषयज्ञ का आयोजन भी किया जाने वाला था परन्तु पिछले सप्ताह किसी दुष्ट ग्वाले ने समस्त जनता के सम्मुख उस धनुष को तोड़ दिया था। अवश्य ही उसके क्रूर भाई ने उस ग्वाले की हत्या करवा दी होगी।
अपने पिता, शूर नेता देवक के नाम पर उसे देवकी कहा जाता था। दासियों की सहायता से उसे उसके निर्दिष्ट आसन पर बिठा दिया गया। अभी तक आसपास के वातावरण से निर्लिप्त देवकी की तन्द्रा उसके चरणों पर पड़े करस्पर्शों से टूटी। कुछ नवयुवक उसके पैर छू रहे थे। देवकी कुछ न समझने के भाव से उनकी ओर देख ही रही थी कि उसके कंधे पर एक नारी ने अपनी हथेली रखते हुए कहा, "देवकी, यह हमारे पुत्र हैं, हमारे पति वसुदेव के पुत्र। गद, सारण और सुभद्र।" देवकी अब भी असमंजस में थी। उसके नेत्रों में उस नारी के प्रति भी कोई पहचान के चिह्न नहीं दिख रहे थे। बलवान देहयष्टि की उस नारी ने प्रेम से देवकी का चुबक उठाकर कहा, "मुझे भी नहीं पहचाना देवकी? कैसे पहचानोगी! तुम्हारे और आर्यपुत्र के विवाह के अवसर पर हम तो तुम्हारी राह ही देखते रह गए, और दुष्ट कंस ने तुम्हें मार्ग में ही बंदी बना लिया था। मैं तुम्हारी सपत्नी, आर्यपुत्र वसुदेव की पत्नी रोहिणी हूँ।"
देवकी ने झट से अपनी धोती का छोर अपने दाँतों तले दबाया और रोहिणी के चरणों में झुकने को हुई, कि रोहिणी ने उसे अपने गले से लगा लिया। फिर रोहिणी बोली, "बहन, तेरा-मेरा नाता कुछ विचित्र ही प्रकार का है। यद्यपि पति के पुत्र सभी पत्नियों के साझे होते हैं, जैसे ये गद है, सुभद्र है, परन्तु तेरे गर्भ में अंकुरित बीज का पोषण मेरे गर्भ में हुआ है। तुझे पता है, तेरे सातवें पुत्र राम की माता हूँ मैं?"
जिस स्त्री ने अपने जीवन के पच्चीस वर्ष, पच्चीस वैवाहिक वर्ष, सन्तानमती होने के पश्चात भी संतानहीन होकर व्यतीत किए हों, अनुमान लगाना कठिन है कि यह सब सुनकर उसकी मनःस्थिति कैसी हो रही होगी। देवकी रोहिणी के गले लगकर रोने लगी। जैसे कोई माता अपनी पुत्री को चुप कराती है, वैसे रोहिणी ने देवकी को चुप कराया और कहा, "चुप कर बहन। अब तेरे दुख के दिन समाप्त हुए। मेरा अंतर्मन जानता है कि आज कुछ विशेष होने वाला है। तेरे पुत्र राम और कृष्ण मथुरा में हैं। वे शीघ्र ही यहां उपस्थित होंगे।"
'यहां उपस्थित होंगे', यह सुनकर देवकी ने अपने चारों ओर देखा। अब तक तो वह जैसे खुले नेत्रों से निद्रामग्न थी। अब उसके नेत्र खुले। उसने देखा कि वह एक गोलाकार क्रीड़ास्थल के चारो ओर बनी विशाल संरचना में स्थित एक आसन पर बैठी है। सहस्त्रों दर्शकों से युक्त उस संरचना में देवकी के आसन के ठीक सामने मथुराधीश कंस अपने मागधी अंगरक्षकों के साथ बैठा हुआ है। नीचे क्रीड़ास्थल पर अनेक मल्ल अपनी कला का प्रदर्शन कर रहे हैं। अचानक ही प्रवेशद्वार पर शोर सा उठा। रोहिणी ने देवकी के कंधे झंकझोरते हुए हुए कहा, "देख बहन, वह हमारा राम चला आ रहा है!"
देवकी ने देखा, एक अत्यंत लम्बा-चौड़ा बलिष्ठ युवा जिसके चेहरे पर अभी मूंछों ने आना आरम्भ ही किया है, एक हाथ में ठोस इस्पात की बनी गदा लिए तनिक क्रोधित भाव से सबके सम्मुख उपस्थित हो गया। नीलाम्बर धारी उस युवक ने चारों ओर अपनी सिंहदृष्टि फिराई। दर्शकदीर्घा में उसने गोपों के बीच बैठे नन्द को प्रणाम किया, विशिष्टि पुरुषों की दीर्घा में उसने अक्रूर को पहचाना और प्रणाम किया। स्त्रियों की दीर्घा में उसने अपनी माता रोहिणी को प्रणाम किया। उसने देखा कि उसकी माता अपने निकट खड़ी एक अतिशय दुर्बल स्त्री को प्रणाम करने का संकेत दे रही हैं। राम ने उसे भी प्रणाम किया और अनन्तर अपनी क्रुद्धदृष्टि कंस पर स्थिर कर ली।
देवकी की अवस्था विचित्र हो गई थी। राम से पहले छह नवजात पुत्र उसने अपने हाथों में उठाए थे, और उन्हें मरते देखा था, आँठवें पुत्र को भी उसने देखा था, और स्वयं से दूर कर दिया था। परन्तु इस पुत्र को तो वह जन भी नहीं पाई थी। क्या वह वास्तव में इसकी जननी थी भी? राम के बाद निश्चित ही कृष्ण भी आएगा। वह कृष्ण जिसे देखने की आशा में उसने अपने नारकीय जीवन को भी सहर्ष
जब तक उसका विवाह नहीं हुआ था, वह स्वतंत्र थी। विवाह होते ही वह बंदिनी हो गई। और विडंबना यह कि उसे उसके पति ने नहीं, अपितु उसके भाई ने बंदी बनाया था। आज उसे कुल पच्चीस वर्ष बाद बाहर निकलने की अनुमति मिली थी। उसके भाई, मथुराधीश कंस ने विजयोत्सव का आयोजन किया था। कंस अपने श्वसुर मगधराज सम्राट जरासंध का दाहिना हाथ था। जरासंध के गुट में विदर्भ के राजा भीष्मक, और चेदि के राजा दामघोष भी थे, परन्तु कंस का स्थान इन दोनों से कहीं ऊपर था। भीष्मक पुत्र रुक्मी और दामघोष पुत्र शिशुपाल कंस को अपना आदर्श मानते थे। जरांसन्ध की आज्ञा से, कंस देश-विदेश में जययात्राएं करता रहता था, परन्तु यह प्रथम अवसर था जब वह विजयोत्सव भी मना रहा था। उस स्त्री ने सुना था कि कोई धनुषयज्ञ का आयोजन भी किया जाने वाला था परन्तु पिछले सप्ताह किसी दुष्ट ग्वाले ने समस्त जनता के सम्मुख उस धनुष को तोड़ दिया था। अवश्य ही उसके क्रूर भाई ने उस ग्वाले की हत्या करवा दी होगी।
अपने पिता, शूर नेता देवक के नाम पर उसे देवकी कहा जाता था। दासियों की सहायता से उसे उसके निर्दिष्ट आसन पर बिठा दिया गया। अभी तक आसपास के वातावरण से निर्लिप्त देवकी की तन्द्रा उसके चरणों पर पड़े करस्पर्शों से टूटी। कुछ नवयुवक उसके पैर छू रहे थे। देवकी कुछ न समझने के भाव से उनकी ओर देख ही रही थी कि उसके कंधे पर एक नारी ने अपनी हथेली रखते हुए कहा, "देवकी, यह हमारे पुत्र हैं, हमारे पति वसुदेव के पुत्र। गद, सारण और सुभद्र।" देवकी अब भी असमंजस में थी। उसके नेत्रों में उस नारी के प्रति भी कोई पहचान के चिह्न नहीं दिख रहे थे। बलवान देहयष्टि की उस नारी ने प्रेम से देवकी का चुबक उठाकर कहा, "मुझे भी नहीं पहचाना देवकी? कैसे पहचानोगी! तुम्हारे और आर्यपुत्र के विवाह के अवसर पर हम तो तुम्हारी राह ही देखते रह गए, और दुष्ट कंस ने तुम्हें मार्ग में ही बंदी बना लिया था। मैं तुम्हारी सपत्नी, आर्यपुत्र वसुदेव की पत्नी रोहिणी हूँ।"
देवकी ने झट से अपनी धोती का छोर अपने दाँतों तले दबाया और रोहिणी के चरणों में झुकने को हुई, कि रोहिणी ने उसे अपने गले से लगा लिया। फिर रोहिणी बोली, "बहन, तेरा-मेरा नाता कुछ विचित्र ही प्रकार का है। यद्यपि पति के पुत्र सभी पत्नियों के साझे होते हैं, जैसे ये गद है, सुभद्र है, परन्तु तेरे गर्भ में अंकुरित बीज का पोषण मेरे गर्भ में हुआ है। तुझे पता है, तेरे सातवें पुत्र राम की माता हूँ मैं?"
जिस स्त्री ने अपने जीवन के पच्चीस वर्ष, पच्चीस वैवाहिक वर्ष, सन्तानमती होने के पश्चात भी संतानहीन होकर व्यतीत किए हों, अनुमान लगाना कठिन है कि यह सब सुनकर उसकी मनःस्थिति कैसी हो रही होगी। देवकी रोहिणी के गले लगकर रोने लगी। जैसे कोई माता अपनी पुत्री को चुप कराती है, वैसे रोहिणी ने देवकी को चुप कराया और कहा, "चुप कर बहन। अब तेरे दुख के दिन समाप्त हुए। मेरा अंतर्मन जानता है कि आज कुछ विशेष होने वाला है। तेरे पुत्र राम और कृष्ण मथुरा में हैं। वे शीघ्र ही यहां उपस्थित होंगे।"
'यहां उपस्थित होंगे', यह सुनकर देवकी ने अपने चारों ओर देखा। अब तक तो वह जैसे खुले नेत्रों से निद्रामग्न थी। अब उसके नेत्र खुले। उसने देखा कि वह एक गोलाकार क्रीड़ास्थल के चारो ओर बनी विशाल संरचना में स्थित एक आसन पर बैठी है। सहस्त्रों दर्शकों से युक्त उस संरचना में देवकी के आसन के ठीक सामने मथुराधीश कंस अपने मागधी अंगरक्षकों के साथ बैठा हुआ है। नीचे क्रीड़ास्थल पर अनेक मल्ल अपनी कला का प्रदर्शन कर रहे हैं। अचानक ही प्रवेशद्वार पर शोर सा उठा। रोहिणी ने देवकी के कंधे झंकझोरते हुए हुए कहा, "देख बहन, वह हमारा राम चला आ रहा है!"
देवकी ने देखा, एक अत्यंत लम्बा-चौड़ा बलिष्ठ युवा जिसके चेहरे पर अभी मूंछों ने आना आरम्भ ही किया है, एक हाथ में ठोस इस्पात की बनी गदा लिए तनिक क्रोधित भाव से सबके सम्मुख उपस्थित हो गया। नीलाम्बर धारी उस युवक ने चारों ओर अपनी सिंहदृष्टि फिराई। दर्शकदीर्घा में उसने गोपों के बीच बैठे नन्द को प्रणाम किया, विशिष्टि पुरुषों की दीर्घा में उसने अक्रूर को पहचाना और प्रणाम किया। स्त्रियों की दीर्घा में उसने अपनी माता रोहिणी को प्रणाम किया। उसने देखा कि उसकी माता अपने निकट खड़ी एक अतिशय दुर्बल स्त्री को प्रणाम करने का संकेत दे रही हैं। राम ने उसे भी प्रणाम किया और अनन्तर अपनी क्रुद्धदृष्टि कंस पर स्थिर कर ली।
देवकी की अवस्था विचित्र हो गई थी। राम से पहले छह नवजात पुत्र उसने अपने हाथों में उठाए थे, और उन्हें मरते देखा था, आँठवें पुत्र को भी उसने देखा था, और स्वयं से दूर कर दिया था। परन्तु इस पुत्र को तो वह जन भी नहीं पाई थी। क्या वह वास्तव में इसकी जननी थी भी? राम के बाद निश्चित ही कृष्ण भी आएगा। वह कृष्ण जिसे देखने की आशा में उसने अपने नारकीय जीवन को भी सहर्ष