हुई है वही जो राम रचि राखा?
"हमारे भाग्य मे ही नही था! हमारा नसीब ही खराब है! "
आदि यह सब वाक्य मनुष्य अक्सर प्रयोग में लाता है जब वह कोई कार्य नही कर पाता अथ्वा नही करना चाहता... साक्षात यह कहना कि इस कार्य मे मेरा मन नही लग रहा अथ्वा नही लगाना चाहता , मनुष्य को यह वाक्य दोहराना सरल जान पढ़ता है जिससे कि वह अपनी हार का दोष भाग्य या ईश्वर पर डाल देता है
इसका दुष्परिणाम यह है कि व्यक्ति उस कार्य से कतराता हुआ कतराता ही रह जाता है और जीवन भर उस कार्य को कभी नही कर पाता
सफलता और असफलता मे एक ही पग का अंतर होता है... जो कार्य से कतराता है वह असफल और जो सैंकड़ों बार हारने के बाद लक्ष्य को प्राप्त करता है वह सफल ...जो असफल है वह सफल बन सकता है परंतु केवल अपनी असफलता के कारण को जानकर, उसे सुधारकर और " पुनः प्रयास करके "
यदि वह अपनी असफलता से निराश, हाथ दर हाथ बैठा रहे तो वह सफलता के निकट भी नही आ सकता
" हुई है वही जो राम रचि राखा " अर्थात ईश्वर ने जो भाग्य मे लिखा है वही होगा " क्या करे हम प्रारब्ध के मारे है " अर्थात हमारा नसीब, भाग्य अच्छा नही
इस सिद्धांत के विरुद्ध श्रीकृष्ण महाराज ने गीता में कहा है " न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः न कर्मफलसंयोगं स्वाभावस्तु प्रवर्तते "
अर्थात मनुष्य स्वतंत्र कर्ता है इसलिए शुभ और अशुभ { अच्छे और बुरे } कर्म वह अपनी इच्छा से करता है ईश्वर का जिसमे कोई हाथ नही और उन्ही कर्मो के अनुसार उसे फल मिलेगा यही कर्म फल सिद्धांत है...
जैसे बिना चोरी के FIR नही हो सकती उसी प्रकार बिना कर्म किए ही भाग्य और प्रारब्ध मिथ्या है
मनुष्य के निरंतर कर्म करने की अवस्था को " क्रियमाण " कहते है और जब कर्म पूरा होकर फल देने योग्य होकर जमा हो, उसे संचित कर्म कहते हैं
संचित की जिस अवस्था में फल मिलना प्रारंभ होता है उसे प्रारब्ध कहते है
अतः स्पष्ट हो गया कि मनुष्य अपना भाग्य स्वयं रचता है जैसा वह कर्म करता है, उसके अनुरूप ही उसे फल मिलता है... भाग्य ईश्वर द्वारा थोपा नही जाता
" हुई है वही जो राम रचि राखा " आलसी और प्रमादियो की उपज है
सदैव याद रखो " सोम आह तवाहमस्मि सख्ये न्योकाः " अर्थात ईश्वर केवल उसी का सहायक बनता है जो पुरुषार्थ करता है !! "
चरैवेति चरैवेति !
- सार्थक विद्यार्थी
"हमारे भाग्य मे ही नही था! हमारा नसीब ही खराब है! "
आदि यह सब वाक्य मनुष्य अक्सर प्रयोग में लाता है जब वह कोई कार्य नही कर पाता अथ्वा नही करना चाहता... साक्षात यह कहना कि इस कार्य मे मेरा मन नही लग रहा अथ्वा नही लगाना चाहता , मनुष्य को यह वाक्य दोहराना सरल जान पढ़ता है जिससे कि वह अपनी हार का दोष भाग्य या ईश्वर पर डाल देता है
इसका दुष्परिणाम यह है कि व्यक्ति उस कार्य से कतराता हुआ कतराता ही रह जाता है और जीवन भर उस कार्य को कभी नही कर पाता
सफलता और असफलता मे एक ही पग का अंतर होता है... जो कार्य से कतराता है वह असफल और जो सैंकड़ों बार हारने के बाद लक्ष्य को प्राप्त करता है वह सफल ...जो असफल है वह सफल बन सकता है परंतु केवल अपनी असफलता के कारण को जानकर, उसे सुधारकर और " पुनः प्रयास करके "
यदि वह अपनी असफलता से निराश, हाथ दर हाथ बैठा रहे तो वह सफलता के निकट भी नही आ सकता
" हुई है वही जो राम रचि राखा " अर्थात ईश्वर ने जो भाग्य मे लिखा है वही होगा " क्या करे हम प्रारब्ध के मारे है " अर्थात हमारा नसीब, भाग्य अच्छा नही
इस सिद्धांत के विरुद्ध श्रीकृष्ण महाराज ने गीता में कहा है " न कर्तृत्वं न कर्माणि लोकस्य सृजति प्रभुः न कर्मफलसंयोगं स्वाभावस्तु प्रवर्तते "
अर्थात मनुष्य स्वतंत्र कर्ता है इसलिए शुभ और अशुभ { अच्छे और बुरे } कर्म वह अपनी इच्छा से करता है ईश्वर का जिसमे कोई हाथ नही और उन्ही कर्मो के अनुसार उसे फल मिलेगा यही कर्म फल सिद्धांत है...
जैसे बिना चोरी के FIR नही हो सकती उसी प्रकार बिना कर्म किए ही भाग्य और प्रारब्ध मिथ्या है
मनुष्य के निरंतर कर्म करने की अवस्था को " क्रियमाण " कहते है और जब कर्म पूरा होकर फल देने योग्य होकर जमा हो, उसे संचित कर्म कहते हैं
संचित की जिस अवस्था में फल मिलना प्रारंभ होता है उसे प्रारब्ध कहते है
अतः स्पष्ट हो गया कि मनुष्य अपना भाग्य स्वयं रचता है जैसा वह कर्म करता है, उसके अनुरूप ही उसे फल मिलता है... भाग्य ईश्वर द्वारा थोपा नही जाता
" हुई है वही जो राम रचि राखा " आलसी और प्रमादियो की उपज है
सदैव याद रखो " सोम आह तवाहमस्मि सख्ये न्योकाः " अर्थात ईश्वर केवल उसी का सहायक बनता है जो पुरुषार्थ करता है !! "
चरैवेति चरैवेति !
- सार्थक विद्यार्थी